पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९२

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कल्याणी-आश्चर्य है ! मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वश कर सकता है परन्तु मनुष्य को नहीं। पर्वतेश्वर-नट, नागों पर तुम लोगों का अधिकार कैसे हो जाता है ? चन्द्रगुप्त -मन्त्र-महौषधि के भाले से बड़े-बड़े मत्त नाग वशीभूत होते हैं । पर्वतेश्वर-भाले से? सिंहरण-हाँ महाराज ! वैसे ही जैसे भालो से मदमत्त मातंग ! पर्वतेश्वर-तुम लोग कहाँ से आ रहे हो? सिंहरण-ग्रोकों के शिविर से । चन्द्रगुप्त-उनके भाले भारतीय हायियों के लिए वज्र ही है । पर्वतेश्वर-तुम लोग आंभीक के चर तो नही हो ? सिहरण---रातो-रात यवन-सेना वितस्ता के पार हो गई है-समीप है, महाराज | सचेत हो जाइये । पर्वतेश्वर-मगधनायक ! इन लोगों को बन्दी करो। [चन्द्रगुप्त कल्याणी को ध्यान से देखता है] अलका-उपकार का भी यह फल है ! चन्द्रगुप्त-हम लोग बन्दी ही है। परन्तु रण-व्यूह से सावधान होकर सैन्य- परिचालन कीजिये । जाइये महाराज ! यवन-रणनीति भिन्न है । [पर्वतेश्वर उद्विग्न भाव से जाता है] कल्याणी-(सिंहरण से) चलो, हमारे शिविर मे ठहरो, फिर बताया जायगा। चन्द्रगुप्त-मुझे कुछ कहना है । कल्याणी -अच्छा, तुम लोग आगे चलो। [सिंहरण इत्यादि आगे बढ़ते हैं] चन्द्रगुप्त-इस युद्ध मे पर्वतेश्वर की पराजय निश्चित है। कल्याणी -परन्तु तुम कौन हो-(ध्यान से देखती हुई)-मैं तुमको पहचान"" चन्द्रगुप्त-मगध का एक संपेरा ! कल्याणी-हूँ ! और भविष्यवक्ता भी ? चन्द्रगुप्त-मुझे मगध की पताका के सम्मान की..." कल्याणी-कौन ! चन्द्रगुप्त तो नही । चन्द्रगुप्त-अभी तो एक संपेरा हूँ राजकुमारी कल्याणी। कल्याणी-(एक क्षण चुप रहकर) हम दोनों को चुप रहना चाहिये, चलो। [दोनों का प्रस्थान] दूश्या न्त र ५७२: प्रसाद वाङ्मय