पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय दृश्य [युद्ध क्षेत्र में सैनिकों के साथ पर्वतेश्वर] पर्वतेश्वर-सेनापति, भूल हुई। सेनापति हाथियों ने ऊधम मचा रखा है और रथी सेना भी व्यर्थ-सी हो रही है। पर्वतेश्वर-सेनापति, युद्ध में जय या मृत्यु -दो मे से एक होनी चाहिये । सेनापति-महाराज, सिकन्दर को वितस्ता पर यह अच्छी तरह विदित हो गया है कि हमारे खड्गों में कितनी धार है। स्वयं सिकन्दर का अश्व मारा गया और राजकुमार माले की चोट सिकन्दर न संभाल सका। पर्वतेश्वर प्रशंसा का समय नहीं-शीघ्रता करो। मेरा रण-गज प्रस्तुत हो, मैं स्वयं गजसेना का संचालन करूंगा-चलो मब जाते हैं । [कल्याणी और चन्द्रगुप्त का प्रवेश] कल्याणी-चन्द्रगुप्त, तुम्हें यदि मगध सेना विद्रोही जानकर बन्दी बनावे ? पंद्रगुप्त-बन्दी सारा देश है राजकुमारी, दारुण द्वेष से सब जकड़े हैं । मुझको इसकी चिन्ता भी नहीं । परन्तु राजकुमारी का युद्धक्षेत्र में आना अनोखी बात है। कल्याणी-केवल तुम्हें देखने के लिए ! मैं जानती थी कि तुम युद्ध में अवश्य सम्मिलित होगे और मुझे भ्रम हो रहा है कि तुम्हारे निर्वासन के भीतरी कारणों में एक मैं भी हूँ। चन्द्रगुप्त-परन्तु राजकुमारी, मेरा हृदय देश की दुर्दशा से व्याकुल है। इस ज्वाला में स्मृति-लता मुरझा गयी है । कल्याणी- चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त-राजकुमारी ! समय नहीं ! वह देखो-भारतीयों के प्रतिकूल देव ने मेघमाला का सृजन किया है। रथ बेकार होंगे और हाथियों का प्रत्यावर्तन तो और भी भयानक हो रहा है।. कल्याणी -तब ! मगध-सेना तुम्हारे अधीन है, जैसा चाहो करो! चन्द्रगुप्त-पहले उस पहाड़ी पर सेना एकत्र होनी चाहिये । शीघ्र आवश्यकता होगी । पर्वतेश्वर की पराजय को रोकने की चेष्टा कर देखू । कल्याणी-चलो! १. चन्द्रगुप्त नाटक स्वाधीनता-संग्राम के मध्यकाल १९२८ में लिखा गया था जब पूरे देश को एक बृहत कारागार कहा जाता था। चन्द्रगुप्त : ५७३