पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. [मेषों की गड़गड़ाहट | दोनों जाते हैं । एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से पर्वतेश्वर का ससैन्य प्रवेश/ युद्ध] सिल्यूकस-पर्वतेश्वर ! अस्त्र रख दो। पर्वतेश्वर-यवन | सावधान ! बचाओ अपने को। [तुमुल युद्ध, घायल होकर सिल्यूकस हटता है] पर्वतेश्वर-सेनापति ! देखो, उन कायरो को रोको ! उनसे कह दो कि आज रणभूमि में पर्वनेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजय की चिंता नही । इन्हें बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते है । बादलो से पानी की जगह वज बरसें, सारी गजसेना छिन्न-भिन्न हो जाय, रथी विरथ हों, रक्त के नाले धमनियों से बहें, परन्तु एक पग भी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असंभव है। धर्मयुद्ध में प्राण- भिक्षा मांगने वाले भिखारी-हम नही। जाओ, उन भगोडो से एक बार जननी के स्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिये कहो-कहो कि मरने का क्षण एक ही है-जाओ। [सेनापति का प्रस्थान/सिंहरण और अलका का प्रवेश] सिंहरण-महाराज ! यह स्थान सुरक्षित नही। उस पहाडी पर चलिये । पर्वतेश्वर-तुम कौन हो युवक सिंहरण-एक मालव ! पर्वतेश्वर-मालव के मुख से ऐसा कभी नही सुना गया-मालव ! खड्गक्रीड़ा देखनी हो तो खडे रहो । डर लगता हो तो पहाडी पर जाओ। सिंहरण-महाराज, यवनो का दल आ रहा है । पर्वतेश्वर-आने दो। तुम हट जाओ। [फिलिप्स का प्रवेश सिंहरण का भीषण युद्ध/फिलिप्स का हटना/ सिल्यूकस फिलिप्स का पुनः प्रवेश, सिंहरण का घायल होना और संकेत करना/पर्वतेश्वर का युद्ध और लड़खड़ा कर गिरने की चेष्टा/ चन्द्रगुप्त और कल्याणी का सैनिकों के साथ पहुंचना/दूसरी ओर से सिकन्दर का आना/युद्ध बन्द करने की सिकन्दर की आज्ञा] चन्द्रगुप्त-युद्ध होगा। सिकन्दर-कौन, चन्द्रगुप्त । चन्द्रगुप्त-हाँ देवपुत्र सिकन्दर-क्सिसे युद्ध ? मुमूर्ष-घायल पर्वतेश्वर-वीर पर्वतेश्वर से ! कदापि नही ! आज मुझे जय-पराजय का विचार नही-मैंने एक अलौकिक वीरता का स्वर्गीय श्य देखा है। होमर की कविता मे पढ़ी हुई-जिस कल्पना से मेरा ५७४: प्रसाद वाङ्मय