पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९५

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हृदय भरा है-उसे यहां प्रत्यक्ष देखा! भारतीय वीर पर्वतेश्वर ! अब मैं तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करूं। पर्वतेश्वर-(रक्त पोंछते हुए) जैसा एक नरपति अन्य नरपति के साथ करता है, सिकन्दर ! सिकन्दर-मैं तुमसे मैत्री करना चाहता हूँ। विस्मय विमुग्ध होकर तुम्हारी सराहना किये बिना मैं नही रह सकता-धन्य ! आर्य-वीर ! पर्वतेश्वर-मैं तुमसे युद्ध न करके मंत्री भी कर सकता हूँ। चन्द्रगुप्त-पंचनद-नरेश ! आप क्या कर रहे है । समस्त मागध सेना आपकी प्रतीक्षा में है, युद्ध होने दीजिये । कल्याणी -इन थोड़े-से अर्द्धजीव यवनों को विचलित करने के लिए पर्याप्त मागध सेना है । महाराज ! आज्ञा दीजिये । पर्वतेश्वर-नही युवक | वीरता भी एक सुन्दर कला है, उस पर मुग्ध होना आश्चर्य की बात नही, मैंने वचन दे दिया, अब सिकन्दर चाहे हटें। सिकन्दर-कदापि नही । कल्याणी-(शिरस्त्राण फेंककर) जाती हूँ क्षत्रिय पर्वतेश्वर ! तुम्हारे पतन में रक्षा न कर सकी, बडी निराशा हुई। पर्वतेश्वर--तुम कौन हो? चन्द्रगुप्त--मगध की राजकुमारी कल्याणी देवी ! पर्वतेश्वर-ओह पराजय ! निकृष्ट पराजय ! [चन्द्रगुप्त और कल्याणी का प्रस्थान/सिकन्दर आश्चर्य से देखता है। अलका घायल सिंहरण को उठाना चाहती है।आंभीक आकर दोनों को बन्दी करता है] पर्वतेश्वर-यह क्या ? आंभोक-इनको अभी बन्दी रखना आवश्यक है। पर्वतेश्वर--तो ये लोग मेरे यहाँ रहेगे। सिकन्दर--पंचनद-नरेश की जैसी इच्छा हो। दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [मालव में सिंहरण के उद्यान का एक अंश] मालविका-(प्रवेश करके) फूल हसत हुए आते हैं, मकरन्द गिराकर मुरझा जाते हैं, आंसू से धरणी को भिगोकर चले जाते हैं ! एक स्निग्ध समीर का झोंका चन्द्रगुप्त : ५७५