पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९८

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सैनिक-उत्तर भी लेकर आना होगा? चन्द्रगुप्त-नहीं। (सनिक का प्रस्थान) मालविका-मालव में बहुत-सी बातें मेरे देश से विपरीत है। इनकी युद्ध- पिपासा बलवती है-फिर युद्ध ! चन्द्रगुप्त-तो क्या तुम इस देश की नहीं हो ? मालविका-नहीं, मैं सिंधु की रहनेवाली हूँ, आर्य ! वहाँ युद्ध-विग्रह नही, न्यायालयों की आवश्यकता नही। प्रचुर स्वर्ण के रहते भी कोई उसका उपयोग नहीं-इसलिए अर्थमूलक विवाद कभी उठते ही नहीं। मनुष्य के प्राकृतिक जीवन का सुन्दर पालना-मेरा सिंधुदेश है। चन्द्रगुप्त-तो यहाँ कैसे चली आयी हो ? मालविका-मेरी इच्छा हुई कि और देशों को भी देखू ।' तक्षशिला में राज- कुमारी अलका से कुछ ऐसा स्नेह हुआ वहां रहने लगी। उन्हींने मुझे घायल सिंहरण के साथ यहां भेज दिया । कुमार सिंहरण बड़े सहृदय है। परन्तु मागध, तुमको देखकर तो मैं चकित हो जाती हूँ। कभी इन्द्रजाली, कभी कुछ ! भला इतना --तुम्हें विकृत करने की क्या आवश्यकता है ? चन्द्रगुप्त--शुभे, मैं तुम्हारी सरलता पर मुग्ध हूँ। तुम इन बातों को पूछकर क्या करोगी ! (प्रस्थान) मालविका-स्नेह से हृदय चिकना हो जाता है। देखू कुमार सिंहरण कब आते हैं । (प्रस्थान) सुन्दर रूप-- पंचम दृश्य [बन्दीगृह में घायल सिंहरण और अलका] अलका-अब तो चल-फिर सकोगे? सिंहरण-हाँ अलका. परन्तु बन्दीगृह में चलना-फिरना व्यर्थ है। अलका--नही मालव, बहुत शीघ्र स्वस्थ होने की चेष्टा करो। तुम्हारी आवश्यकता है। सिंहरण- अलका-सिकन्दर की सेना रावी पार हो रही है । पञ्चद से संधि हो गयी, अब यवन लोग निश्चिन्त होकर आगे बढ़ना चाहते हैं। आर्य चाणक्य का एक चर यह सन्देश सुना गया है। सिंहरण-कैसे ? १ घूमने का मेरा अभ्याम बढ़ा था मुक्त व्योमतल नित्य-कामायनी श्रया सर्ग । -क्या? ५७८: प्रसाद वाङ्मय