पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६०३

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शासन को नहीं-युद्ध का है। युद्ध में सम्मिलित होने वाले वीरों का एकनिष्ठ होमा लाभदायक है। फिर तो मालव और क्षुद्रक दोनों ही स्वतंत्र संघ हैं और रहेंगे। संभवतः इसमें प्राच्यों का एक गणराष्ट्र आगामी दिनों में और भी बा मिलेगा। नागदत्त-समझ गया, चन्द्रगुप्त को ही सम्मिलित सेना का सेनापति बनाना श्रेयस्कर होगा! सिंहरण-अन्न-पान और भैषज्य-सेवा करने वाली स्त्रियों ने मालविका को अपना प्रधान बनाने की प्रार्थना की है । गणमुख्य-यह उन लोगों की इच्छा पर है । अस्तु, महाबलाधिकृत पद के लिए चन्द्रगुप्त का वरण करने की आज्ञा परिषद् देती है । [समवेत जयघोष) सप्तम दृश्य [पर्वतेश्वर का प्रासाद] अलका-सिहरण मेरी आशा मे होगा और मैं यहां पड़ी हूँ। आज इसका कुछ निपटारा करना होगा -अब अधिक नही । (आकाश की ओर देखकर) तारों से भरी हुई काली रजनी का नीला आकाश-जैसे कोई विराट् गणितज्ञ निभृत में रेखा-गणित की समस्या सिद्ध करने के लिए बिन्दु दे रहा है ! [पर्वतेश्वर का प्रवेश] पर्वतेश्वर र-अलका बड़ी द्विविधा है। अलका-क्यों पौरव ? पर्वतेश्वर-मैं तुमसे प्रतिश्रुत हो चुका हूँ कि मालन-युद्ध में मैं भाग न लूंगा, परन्तु सिकन्दर का दूत आया है कि आठ सहस्र अश्वारोही लेकर रावी तट पर मिलो । साथ ही पता चला है कि कुछ यवन-सेना अपने देश को लौट रही है ! अलका-(अन्यमनस्क होकर) हां, कहते चलो ! पनतेश्वर-तुम क्या कहती हो अलका ! बलका-मैं सुनना चाहती हूं। पनतेश्वर-बतलाओ, मैं क्या करूं? अलका-जो अच्छा समझो ! मुझे देखने दो ऐसी सुन्दर वेणी-फूलों से गुंथी हुई श्यामा रजनी की सुन्दर वेणी-अहा ! पर्वतेश्वर -क्या कह रही हो? अलका--गाने की इच्छा होती है, सुनोगे-(गाती है) चन्द्रगुप्त : ५८३