पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६०४

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किरन अलक व्याकुल हो विरस वन पर चिन्ता लेख, छायापय में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेष प्रियतम के आगमन-पंच में उगन रही है कोमल कार्यबिनी उठी यह ढंकने वाली दूर जलधि के समय-विहग के कृष्णपक्ष में रजत चित्र-सी अंकित कौन- तुम हो सुन्दरि तरल तारिके ! बोलो कुछ, बैठो मत मौन ! मन्दाकिनी समीप भरी फिर प्यासी आंखें क्यों नावान! रूप-निशा की ऊषा में फिर कौन सुनेगा तेरा गान! पर्वतेश्वर--अलका मैं पागल होता जा रहा हूं। यह तुमने क्या कर दिया है। अलका-मैं तो गा रही हूँ। पर्वतेश्वर-परिहास न करो-बताओ, मैं क्या कह ? अलका-यदि सिकन्दर के रण-निमन्त्रण में तुम न जाओगे तो तुम्हारा राज्य चला जायगा। पर्वतेश्वर-बड़ी विडम्बना है। अलका-पराधीनता से बढ़कर विडम्बना और क्या है? अब समझ गये होगे कि वह सन्धि नहीं, पराधीनता की स्वीकृति पी। पनतेश्वर-मैं समझता हूँ कि एक हजार अश्वारोहियों को साथ लेकर वहाँ पहुंच जाऊँ, फिर कोई बहाना ढूंढ निकालूंगा। अलका-(मन में) में चलूं, निकल भागने का ऐसा अवसर दूसरा न मिलेगा। (प्रकट) अच्छी बात है, परन्तु मैं भी साथ चलूंगी । यहाँ अकेले क्या करूंगी? (पर्वतेश्वर के साथ प्रस्थान) अष्टम दृश्य [रावी के तट पर सैनिकों के साथ मालविका और चन्द्रगुप्त/नवी में दूर पर कुछ नावे मालविका-मुझे शीघ्र उत्तर दीजिये। चन्द्रगुप्त-जैसा उचित समझो, तुम्हारी आवश्यक सामग्री तुम्हारे अधीन रहेगी-सिंहरण को कहाँ छोड़ा। मालविका-आते ही होंगे। १. पराधीनता को स्वीकृति दे चुकी सन्धिपों की विडम्बना में ही अंग्रेज भी देशी नरेशों की सेना का उपयोग करते थे। ५८४: प्रसाद वाङ्मय