पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६०५

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चन्द्रगुप्त-(सनिकों से) तुम लोग कितनी दूर तक गये थे ? सैनिक-अभी चार योजन तक यवनों का पता नहीं। परन्तु कुछ भारतीय सैनिक रावी के उस पार दिखाई दिये। मालव की पचासों हिस्रिकाएं वहां निरीक्षण कर रही हैं । उन पर धनुर्धर हैं । सिंहरण-(प्रवेश करके) वह पर्वतेश्वर की सेना होगी। किन्तु मागध ! आश्चर्य है। चन्द्रगुप्त-आश्चर्य कुछ नहीं । सिंहरण-क्षुद्रकों के केवल कुछ ही गुल्म आये हैं, और तो.. चन्द्रगुप्त-चिन्ता नहीं। कल्याणी के मागध सैनिक और क्षुद्रक अपनी घात में हैं यवनों को इधर आ जाने दो। सिंहरण, थोड़ी सी हिस्रिकाओं पर मुझे साहसी वीर चाहिये। सिंहरण प्रस्तुत हैं आज्ञा दीजिये। चन्द्रगुप्त यवनों की जलसेना पर आक्रमण करना होगा। विजय के विचार से नहीं, केवल उलझाने के लिए और उनकी सामग्री को नष्ट करने के लिये । [सिंहरण संकेत करता है/नावें आती हैं] मालविका--तो मैं स्कन्धावार के पृष्ठ भाग में अपने साधन रखती हूँ। एक क्षुद्र भांडार मेरे उपवन में भी रहेगा। चन्द्रगुप्त-(विचार करके) अच्छी बात है । [एक नाव तेजी से आती है/उस पर से अलका उतरती है] सिंहरण-(आश्चर्य से) तुम अलका ! अलका-पर्वतेश्वर ने प्रतिज्ञा भंग की है। वह सैनिकों के साथ सिकन्दर की सहायता के लिए आया है। मालवों की नावें घूम रही थीं, मैं जान-बूझकर पर्वतेश्वर को छोड़कर वहीं पहुंच गयी-(हँसकर) परन्तु मै बन्दी होकर आई हूँ। चन्द्रगुप्त-देवि ! युद्धकाल है, नियमों को देखना ही पड़ेगा । मालविका! ले जाओ इन्हें उपवन में । (मालविका और अलका का प्रस्थान) [मालव-रक्षकों के साथ एक यवन का प्रवेश] यवन--मालव के सन्धि-विग्रहिक अमात्य से मिलना चाहता हूँ। सिंहरण-तुम दूत हो? यवन-हाँ! सिंहरण-कहो मैं यही हूँ। यवन-देवपुत्र ने आज्ञा दी है कि लव-नेता आकर मुझसे भेंट करें और मेरी जल-यात्रा की सुविधा का प्रबन्ध करें। सिंहरण-सिकन्दर से मालवों की ऐसी कोई सन्धि नहीं हुई जिससे वे इस चन्द्रगुप्त : ५८५