पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६०८

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" परन्तु जा फंसा उनके चंगुल में। अब इधर क्षुद्रकों और मागधों की नवीन सेनामों से उसको बाधा पहुंचानी होगी। राक्षस |--तब तुम क्या कहते हो-क्या चाहते हो ? चाणक्य-यही, कि तुम अपनी सम्पूर्ण सेना लेकर विपाशा के तट की रक्षा करो, और क्षुद्रकों को लेकर मैं पीछे से आक्रमण करने जाता हूँ। इसमें तो डरने की बात--कोई नही ? राक्षस-मैं स्वीकार करता हूँ। चाणक्य-यदि न करोगे तो अपना अनिष्ट करोगे। (प्रस्थान) कल्याणी--विचित्र ब्राह्मण है अमात्य ! मुझे तो इसको देखकर डर लगता है। राक्षस-विकट है-राजकुमारी एक बार इससे मेरा द्वन्द्व होना अनिवार्य है, परन्तु अभी मैं उसे बचाना चाहता हूँ। कल्याणी-चलिये ! (कल्याणी का प्रस्थान) चाणक्य-(पुनः प्रवेश करके)-राक्षस एक बात तुम्हारे कल्याण की है, सुनोगे ! मैं कहना भूल गया था। राक्षस-क्या ? चाणक्य-नन्द को अपनी प्रेमिका सुवासिनी से तुम्हारे अनुचित सम्बन्ध का विश्वास हो गया है। अभी तुम्हारा मगध लौटना ठीक न होगा, समझे [चाणक्य का सवेग प्रस्थान-राक्षस सिर पकड़ कर बैठ जाता है] [अन्धकार में दृश्यान्तर] दशम दृश्य ? [पंचनद के पथ में एक पड़ाव पर] धनदत्त-नियति क्या चाहती है ? तुम बतलाओगे ? आजीवक-यह तो वही जाने ! लाखों योनियो मे भ्रमण करते-करते वह पहुंचने वाले स्थान पर पहुंचा देगी। धनदत्त-मैं पूछता हूँ कि एक बार मरने पर भी छुटकारा नहीं ! फिर दूसरी योनि में ! फिर-फिर, मैं तो फिरकी बन गया हूँ। आजीवक-मनुष्य यही जान जाता तो फिर क्या कहना। धनदत्त-तब आप इतना कैसे जानते है कि नियति ही सब कुछ कराती है ? पही क्या सत्य ज्ञान है ? चन्दन-अरे ! ज्ञान के पीछे क्यों सर खपाते हो भाई। मगध में शानियों और दार्शनिकों की तो बाढ़ आ गयी है । तुम्हारे जैसे अज्ञानी उनकी सेवा के लिए भी तो ५८८: प्रसाद वाङ्मय