पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

0000 माता मत करो। बच्चे भूख से बिलख रहे हैं, स्त्री छटपटा रही है और तुम धर्म का उपदेश [राजपुरुष का प्रवेश राजपुरुष-सार्थवाह ! क्या तुम यहीं पड़े रहोगे ? कब तक्षशिला जा रहे हो? धनदत्त-जब नियति ले जाय ! मैं तो चलने के लिए ही घर से निकला था। किन्तु क्या करूं? राजपुरुष-सुनो ! जिन मणियों के ले आने की तुम्हें आशा मिली थी, उनकी अब आवश्यकता नही रही क्योंकि कुमारी का ब्याह अब पंचनद नरेश से न होगा। धनदत्त--(उठकर) हमारे महाराज चिरंजीवी हों और फिर वैसी हत्यापूर्ण मणियां छि ! छि !! बहुत अच्छा किया महाराज ने उन्हें छूने मे भी पाप है। राजपुरुष-किन्तु यह पत्र लो, देखो ! इसमे तुम्हें यह आदेश दिया गया है कि तुम राजकुमारी कल्याणी के सैनिकों की भोजन-व्यवस्था और धनभण्डार की देखरेख करो। जो कमी हो पूरी करो। यह युद्धकाल है। स्मरण रखना कुछ भी गड़बड़ी हुई और.. धनदत्त-और क्या ? राजपुरुष--समस्त सम्पत्ति का राजकोष मे सुरक्षित हो जाना कैसा सुखद होता है, यह तुम जानते हो न । घनदत्त-किन्तु""किन्तु चन्दन-परन्तु"परन्तु" राजपुरुष-(घुड़ककर) किन्तु परन्तु से काम न चलेगा। माधवी-वेष्ठिन् ! इसमें घबराने की क्या बात है ? चलिये राजकुमारी के साथ हमलोग भी रहें। इस युद्धकाल में सैनिकों से सुरक्षित रहना तो और भी अच्छा है। धनदत्त-हम हैं वणिक । यह क्या तुम नही जानती हो। चन्दन-और मुझको ब्राह्मण समझकर ही तुम्हारे पिता ने कन्यादान दिया था। माधवी- -तब ? चन्दन-(गिड़गिड़ाकर) दोहाई है माधवी, तू पतिव्रता है। कुलीन कुल- कन्या है, अपने सुहाग की तू ही रक्षाकर मैं कहता हूँ कि जल मरने का सती होने होने का अवसर न आने दे युद्ध के समीप हम लोगों को न ले जा माधवी ! एं, ऐ, एं! माधवी-आजीवकजी को छोड़कर मैं सबकी रक्षा का भार लेती हूँ। [आजीवक का प्रस्थान] राजपुरुष -माधवी तुम ठहरो। मैं अभी आता हूँ। ५९०: प्रसाद वाङ्मय