पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६१६

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द्वितीय दृश्य [रावी-तट के उत्सव-शिविर के पथ में पर्वतेश्वर अकेले टहलते हुए] पर्वतेश्वर-आह ! कैसा अपपान'! जिस पर्वतेश्वर ने उत्तरापथ में अनेक प्रबल शत्रुओं के रहते भी विरोधों को कुचलकर गर्व से सिर ऊंचा कर रखा था, जिसने दुन्ति सिकन्दर के सामने मरण को तुच्छ समझते हुए, वक्ष ऊंचा करके भाग्य से हंसी-ठट्ठा किया था, उसी का यह तिरस्कार-सो भी एक स्त्री के द्वारा और सिकन्दर के संकेत से--प्रतिशोध-रक्त-पिशाची प्रतिहिंसा अपने दांतों से नसों को नोच रही है। मरूं या मार डालूं। मारना तो असम्भव है। सिंहरण और अलका वर-वधू के वेश में हैं, मालवों के चुने हुए वीरों से वे घिरे हैं। सिकन्दर उनकी प्रशंसा और आदर में लगा है । इस समय सिंहरण पर हाथ उठाना असफलता के पैरों तले गिरना है । तो फिर जीकर क्या करूंगा ? [छुरा निकालकर आत्महत्या करना ही चाहता है कि चाणक्य आकर हाथ पकड़ लेता है] पर्वतेश्वर -कौन ? चाणक्य-ब्राह्मण चाणक्य । पर्वतेश्वर–मेरे इस अन्तिम समय में भी क्या कुछ दान चाहते हो ? चाणक्य-हाँ। पर्वतेश्वर-मैंने अपना राज्य दिया- अब हटो। चाणक्य-यह तो तुमने दे ही दिया, परन्तु मैंने तुमसे माँगा न था, पौरव ! पर्वतेश्वर-फ़िर क्या चाहते हो ? चाणक्य-एक प्रश्न का उत्तर । पर्नतेश्वर- तुम अपनी बात मुझे स्मरण कराने आये हो? तो ठीक है। ब्राह्मण ! तुम्हारी बात सच हुई। यवनों ने आर्यावर्त को पददलित कर दिया। मैं गर्व मैं भूला था, तुम्हारी बात न मानी। अब उसी का प्रायश्चित्त करने जाता हूं- छोड़ दो! चाणक्य-पौरव ! शान्त हो। मैं एक दूसरी बात पूछता हूँ। वृषल चन्द्रगुप्त क्षत्रिय है कि नही, अथवा उसे मूर्धाभिषिक्त करने में ब्राह्मण से भूल हुई ? ' पनतेश्वर-आह-ब्राह्मण ! व्यंग न करो। चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होने का प्रमाण यही विराट् आयोजन है। आर्य चाणक्य ! मैं क्षमता रखते हुए जिस काम को न कर सका उसे निस्सहाय चन्द्रगुप्त ने किया। आर्यावर्त से यवनों के निकल जाने का संकेत उमके प्रचुर बल का द्योतक है। मैं विश्वस्त हृदय से कहता हूँ कि चन्द्रगुप्त आर्यावर्त का एकछत्र सम्राट होने के उपयुक्त है । अब मुझे छोड़ दो... ५९६ : प्रसाद वाङ्मय