पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६१७

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चाणक्य-पौरव ! ब्राह्मण राज्य करना नहीं जानता, करना भी नहीं चाहता, हाँ, वह राजाओं का नियमन करना जानता है, राजा बनाना जानता है। इसलिए तुम्हें अभी राज्य करना होगा और करना होगा वह कार्य जिसमें भारतीयों का गौरव हो और क्षात्र धर्म का पालन हो । पनतेश्वर-(छुरा फेंककर) वह क्या काम है ? चाणक्य-जिन यवनों ने तुमको लज्जित और अपमानित किया है, उनसे प्रतिशोध ! पनतेश्वर-असम्भव है ! चाणक्य-(हँसकर) मनुष्य अपनी दुर्वलता से भलीभांति परिचित रहता है। परन्तु उसे अपने बल से भी अवगत होना चाहिये । असम्भव कहकर-किसी काम को करने से पहले-कर्मक्षेत्र में कांपकर लड़खड़ाओ मत पौरव ! तुम क्या हो-विचार कर देखो तो ! निकन्दर ने जो क्षत्रप नियुक्त किया है-जिन संधियों को वह प्रगतिशील रखना चाहता है वे सब क्या है ? अपनी लूटपाट को वह साम्राज्य के रूप में देखना चाहता है ! चाणक्य जीते-जी यह नहीं होने देगा ! तुप राज्य करो। पनतेश्वर- परन्तु आर्य, मैंने राज्य दान कर दिया है। चाणक्य-पौरव ! तामस त्याग से सात्त्विक ग्रहण उत्तम है ! वह दान न था, उसमें कोई सत्य नहीं । तुम उसे ग्रहण करो। पर्वतेश्वर-तो क्या आज्ञा है ? चाणक्य-पीछे बतलाऊंगा। इस समय मुझे केवल यही कहना है कि सिंहरण को अपना भाई समझो और अलका को बहन । [वृद्ध गांधार-राज का सहसा प्रवेश] वृद्ध-अलका ? कहाँ है, अलका ! पनतेश्वर-कौन हो तुम वृद्ध चाणक्य-मैं इन्हें जानता हूं-वृद्ध गांधार-नरेश ! पनतेश्वर-आर्य, मैं पर्वतेश्वर प्रणाम करता हूँ। वृद्ध-मैं प्रणाम करने योग्य नही–पौरव ! मेरी सन्तान से देश का बड़ा अनिष्ट हुआ है ! आंभीक ने लज्जा की यवनिका में मुझे छिपा दिया है। इस देश- द्रोही के प्राण केवल अलका को देखने के लिए बचे हैं, उसी से कुछ आशा थी ! जिसको मोल लेने में लोभ असमर्थ था-उसी अलका को देखना चाहता हूँ और प्राण दे देना चाहता हूँ। (हांफता है) चाणक्य-क्षत्रिय ! तुम्हारे पाप और पुण्य दोनों जीवित हैं। स्वस्तिमती अलका आज सौभाग्यवती होने जा रही है, चलो कन्या-सम्प्रदान करके प्रसन्न हो जाओ! ? चन्द्रगुप्त : ५९७