पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६१८

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[चाणक्य वृद्ध गांधार-नरेश को लिवा जाता है] पर्नतेश्वर-जाऊँ--किधर जाऊँ-चाणक्य के पीछे ? (जाता है) [कार्नेलिया और चन्द्रगुप्त का प्रवेश] चन्द्रगुप्त-कुमारी, आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई ! कार्नेलिया--किस बात की। चन्द्रगुप्त-कि मैं विस्मृत नही हुआ। कार्नेलिया -स्मृति कोई अच्छी वस्तु है क्या ! चन्द्रगुप्त-स्मृति जीवन का पुरस्कार है सुन्दरि ! कार्नेलिया-परन्तु मैं कितने दूर देश की हूं। स्मृतियां ऐसे अवसर पर उद्दण्ड हो जाती हैं। अतीत की कारा मे बन्दिनी स्मृतियां अपने करुण निःश्वास की शृंखलाओं को झनझनाकर सूचीभेद्य अंधकार में सो जाती हैं। चन्द्रगुप्त-ऐसा हो तो भूल जाओ शुभे ! इस केन्द्रच्युत जलते हुए उल्कापिण्ड की कोई कक्षा नही । निर्वासित-अपमानित प्राणों की चिन्ता क्या ? कार्नेलिया-नही चन्द्रगुप्त, मुझे इस देश से जन्मभूमि के समान स्नेह होता जा रहा है। यहां के श्यामल-कुंज, घने जंगल, सरिताओं की माला पहने हुई शैल-श्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीतकाल की धूप और भोले कृषक तथा सरला कृषक-बालिकाएं, बाल्यकाल की सुनी हुई कहानियो की जीवित प्रतिमाएं है। यह स्वप्नों का देश-यह त्याग और ज्ञान का पालना-यह प्रेम की रंगभूमि- भूमि क्या भुलाई जा सकती है ? कदापि नही -अन्य देश मनुष्यों की जन्मभूमि है, यह भारत मानवता की जन्मभूमि है। चन्द्रगुप्त- शुभे, यह सुनकर मैं चकित हो गया हूँ। कार्नेलिया और मैं मर्माहत हो गयी हूँ-चन्द्रगुप्त मुझे पूर्ण विश्वास था कि पहां के क्षत्रप पिताजी नियुक्त होगे और मैं अलेग्जेन्द्रिया में समीप ही रहकर भारत को देख सकूँगी। परन्तु वैसा न हुआ, मम्राट ने फिलिप्स को यहाँ का शासक नियुक्त कर दिया है। [अकस्मात् फिलिप्स का प्रवेश] फिलिप्स-तो कुरा क्या है कुमारी। सिल्यूकस के क्षत्रप न होने पर भी कार्नेलिया यहां की शासिका हो सकती है। फिलिप्स अनुचर होगा (चन्द्रगुप्त को देखकर) फिर वही भारतीय युवक ! चन्द्रगुप्त-सावधान--यवन ! हमलोग एक बार एक दूसरे की परीक्षा ले चुके हैं। फिलिप्स-ऊँह ! तुमसे मेरा सम्बन्ध ही क्या है, परन्तु -भारत- ५९८: प्रसाद वाङ्मय