पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६१९

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कार्नेलिया--और मुझसे भी नही, फिलिप्स ! मैं चाहती हूं कि तुम मुझसे न बोलो। ... फिलिप्स-अच्छी बात है। किन्तु मैं चन्द्रगुप्त को भी तुमसे बातें करते हुए नहीं देख सकता। तुम्हारे प्रेम का... कार्नेलिया-चुप रहो, मैं कहती हूँ, चुप रहो। फिलिप्स-(चन्द्रगुप्त से) मैं तुमसे द्वन्द्व-युद्ध किया चाहता हूँ चन्द्रगुप्त-जब इच्छा हो, मैं प्रस्तुत हूँ। और संधि भंग करने के लिए तुम्ही अग्रसर होगे, यह अच्छी बात होगी। फिलिप्स-संधि राष्ट्र की है । यह मेरी व्यक्तिगत बात है। अच्छा, फिर कभी मैं तुम्हारा आह्वान करूँगा। चन्द्रगुप्त-आधी रात, पिछले पहर, जब तुम्हारी इच्छा हो । [फिलिप्स का प्रस्थान कार्नेलिया-सिकन्दर ने भारत मे युद्ध किया है और मैंने भारत का अध्ययन किया है। मैं देखती हूं कि यह युद्ध ग्रीक और भारतीयों के अस्त्र का ही नहीं, इसमें दो बुद्धियां भी लड़ रही है। यह अररतु और चाणक्य की चोट है, सिकन्दर और चन्द्रगुप्त तो उनके अस्त्र हैं। चन्द्रगुप्त -मैं क्या कहूं, एक निर्वासित कार्नेलिया - लोग चाहे जो कहें, मैं भलीमाँति जानती हूँ कि अभी तक चाणक्य की विजय है। पिताजी से मेरा इस विषय पर अच्छा विवाद होता है-वे अरस्तू के शिष्यों में से हैं। चन्द्रगुप्त-भविष्य के गर्भ में अभी बहुत से रहस्य छिपे हैं । कार्नेलिया -अच्छा तो मैं जाती है और फिर एक बार अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। किन्तु मुझे विश्वास है कि मैं पुनः लौटकर आऊँगो ? चन्द्रगुप्त-उस समय भी मुझे भूलने की चेष्टा करोगी? कार्नेलिया-नहीं चन्द्रगुप्त ! विदा-यवन-बेड़ा आज ही जायगा। [दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए जाते हैं/राक्षस और कल्याणी का प्रवेश कल्याणी-ऐसा विराट् दृश्य तो मैंने नहीं देखा था अमात्य ! मगध को किस बात का गर्व है ? राक्षस-गर्व है राजकुमारी! और उसका गर्व सत्य है । चाणक्य और चन्द्रगुप्त मगध की ही प्रजा हैं, जिन्होंने इतना बड़ा उलट-फेर किया है ? चाणक्य-(प्रवेश करते) तो तुम इसे स्वीकार करते हो अमात्य राक्षस ? चन्द्रगुप्त : ५९९