पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२

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को उसकी ओर से फेरूँगी। (ऊपर देखकर) कौन, तू मुझे भुलाने आयी है क्या ? वह मुक्त कर देना याद दिलाती है, हाँ, हाँ, मैं उसे न भूलूंगी, उसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ पर इसका परिणाम भी तो मेरे ऊपर छोड़ा गया है (ठहरकर) क्या करूं? हाँ, क्या कहा था कि 'आप मुक्त है, अब मैं जाता हूँ।' अहा क्या ही सुरीला कण्ठस्वर था ! कैसा उन शब्दों का प्रभाव था। (गाती है) (पद्य विहाग) जैसी मधुर मुरलिया श्याम की। वैसी गूंज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की। हुए चपल मृग नैन मोह वश बजी विपञ्ची काम की। फैल रही है मधुर माधवी गन्ध अंग छविधाम की। रूप सुधा के दो प्याले हग ने ही मति बेकाम की ॥ आह ! आलोक ! छाया | सौन्दर्य ! सगीत ! सुगन्ध ! सब चन्द्रगुप्त ! क्या करें वह नही हटा है, मेरी आँखो का तारा रहा है (बैठ जाती है । सिल्यूकस का प्रवेश । एक और खड़ा हो जाता है) कार्नेलिया-चन्द्रगुप्त । मैं ग्रीक सम्राट् की कन्या, तुम हिन्दू राजकुमार । क्या किया जाय। बाबा ! क्या तुम मेरा आन्तरिक भाव बिना कहे नही समझ सकते? सिल्यूकस-(प्रकट होकर) क्या है बेटी, क्यों उदाम हो, क्या मेरे सोच ने तुम्हे जगा रखा था, तेरा स्वास्थ्य तो ठीक है न ? कार्नेलिया-(घबराकर) नही बाबा | अब कब यहाँ से चलियेगा? सिल्यूकस-शीघ्र चलूँ बेटी क्या तुम्हारी राय है कि मै चन्द्रगुप्त से सन्धि कर लूं, जिस तरह वह कहे । कार्नेलिया-हाँ, बाबा । शीघ्र चलिये। सिल्यूकस-जाओ सो रहो, तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नही मालूम होता । (दोनों का प्रस्थान) (पटाक्षेप) आठवां दृश्य (उद्यान में मेगस्थिनीज और सिल्यूकस) सिल्यूकस-कोई अच्छा समाचार तुम ले आये होगे, शीघ्र कहो। मेगास्थिनीज-~-सम्राट् ! सन्धि करने पर तो हिन्दू लोग प्रस्तुत है, पर नियम बड़े कड़े हैं। वे कहते है कि 'सिन्धु के उस तट के कुछ देश हम लोग लेगे और ४६ :प्रसाद वाङ्मय