पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२०

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राक्षस -शत्रु को उचित प्रणसा करना मनुष्य का धर्म है। तुमने अद्भुत कार्य किये इसमे भी कोई सन्देह है ? चाणक्य-अस्तु, अब तुम जा सकते हो। मगध तुम्हारा स्वागत करेगा। राक्षस-राजकुमारी कल चली जायेंगी। पर मैंने अभीतक निश्चय नही किया है। चाणक्य-मेरा कार्य हो गया, राजकुमारी जा सकती हैं, परन्तु एक बात कहूँ? राक्षस-क्या ? चाणक्य यहाँ की कोई बात नन्द से न कहने की प्रतिज्ञा करनी होगी। कल्याणी-मै प्रतिश्रुत हूँ। चाणक्य-राक्षस मैं सुवासिनी से तुम्हारी भेट करा देता, परन्तु वह मुझ पर विश्वास नही करती। राक्षस-क्या वह भी यही है चाणक्य-कही होगी, तुम्हारा प्रत्यय देखकर वह आ सकती है। राक्षस-यह लो मेरी अगुलीय मुद्रा। चाणक्य । सुवासिनी को कारागार से मुक्त कराके मुझसे भेट करा दो। चाणक्य--(मुद्रा लेकर जाते हुए) मै चेष्टा करूंगा। राक्षस--तो राजकुमारी, प्रणाम । कल्याणी--तुमने अपना कर्तव्य भलीभांति सोच लिया होगा। मैं जाती हूँ, और विश्वास दिलाती हूँ कि मुझसे तुम्हारा अनिष्ट न होगा। [दोनों का प्रस्थान] ? तृतीय दृश्य [रावी के तट पर सिकन्दर का प्रस्तुत बेड़ा देखते हुए चाणक्य और पर्वतेश्वर] चाणक्य पौरव देखो यह नृशसता की वाढ आज उतर जायगी। चाणक्य ने जो किया -वह भला था या बुरा, अब समझ मे आवेगा ! पर्वतेश्वर-मैं मानता हूं, यह आप ही का स्तुत्य कार्य है ! चाणक्य-और चन्द्रगुप्त के बाहुबल का -पौरव | आज फिर मैं उसी बात को दुहराना चाहता हूँ। अत्याचारी नन्द के हाथो से मगध का उद्धार करने के लिए चाणक्य ने तुम्ही से पहले सहायता मांगी थी और अब तुम्ही से लेगा भी-अब तो तुम्हे विश्वास होगा? पनतेश्वर-मैं प्रस्तुन हूँ आर्य ! ६००:प्रसाद वाङ्मय