पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२१

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चाणक्य -मैं आश्वस्त हुआ। अच्छा, यवनों को आज विदा करना है। [एक ओर से सिकन्दर, सिल्यूकस, कार्नेलिया, फिलिप्स इत्यादि का और दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त, सिंहरण, अलका, मालविका और आंभीक इत्यादि का अपने रणवाद्यों के साथ प्रवेश] सिकन्दर-सेनापति चन्द्र गुप्त ! बधाई है । चन्द्रगुप्त -किस बात की राजन् ! सिकन्दर-जिम ममय तुम भारत के सम्राट् होगे, उस समय मैं उपस्थित न रह सकूँगा, उसके लिए पहले से बधाई है। मुझे उस नग्न ब्राह्मण दाण्डयायन की बातों का पूर्ण विश्वास हो गया । चन्द्रगुप्त-आप वीर है। सिकन्दर-आर्यवीर ! मैंने भारत मे हरक्यूलिम, एचिलिस की आत्माओं को भी देखा है और देखा डिमास्थनीज को मम्भवत प्लेटो और अरस्तू भी कही होंगे-मैं भारत का अभिनन्दन करता हूँ। सिल्यूकस-सम्राट् । यही आर्य चाणक्य । सिकन्दर-धन्य है-आप, मै तनबार ती हुए पारत मे आया-हृदय देकर जाता हूं। विस्मय-विमुग्ध हैं। जिनमे खड्ग परीक्षा हुई थी, युद्ध मे जिनसे तलवारे मिली थी, उनसे हाथ मिलाकर--मैत्री के हाथ मिलाकर जाना चाहता हूँ। चाणक्य--हमलोग प्रस्तुत है मिकन्दर तुम वीर हो, भारतीय सदैव उत्तम गुणों की पूजा करते है। तुम्हारी जल-या।। मगलमय हो। हमलोग युद्ध करना जानते हैं-द्वेष नही। [सिकन्दर हंसता हुआ अनुचरों के साथ नौका पर आरोहण करता है | नाव चलती है] दृ श्या न्त र 1 चतुर्थ दृश्य [पथं में चर और राक्षस]] चर-छल ! प्रवंचना ! | विश्वासघात !।। राक्षस -क्या है, कुछ सुनूं भी । चर--मगध से आज मेरा सखा कुरग आया है, उरामे यह मालूम हुआ है कि महाराज नन्द का कुछ भी क्रोध आपके ऊपर नही, वह आपके शीध्र मगध लौटने के लिए उत्सुक हैं। राक्षस-और सुवासिनी ? चन्द्रगुप्त : ६०१