पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२२

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, चर-सुवासिनी सुखी और स्वतन्त्र है। मुझे चाणक्य के चर से वह धोखा हुआ था, जब मैंने आपसे वहां का समाचार कहा था। राक्षस--तब क्या मैं कुचक्र में डाला गया हूँ ? (विचारकर) चाणक्य की चाल है। ओह, मैं समझ गया। अभी निकल भागना चाहिए। सुवासिनी पर भी कोई अत्याचार--मेरी मुद्रा दिखाकर न किया जा सके, इसके लिए मुझे शीघ्र पहुंचना चाहिये। चर--क्या आपने मुद्रा भी दे दी है। राक्षस-मेरी मूर्खता ! चाणक्य, मगध में विद्रोह कराना चाहता है ! चर-अभी हम लोगों को मगध का गुल्म मार्ग में मिल जायगा, चाणक्य से बचने के लिए उसका आश्रय अच्छा होगा। दो तीव्रगामी अश्व मेरे अधिकार में हैं-- शीघ्रता कीजिये। राक्षस-तो चलो । मैं चाणक्य के हाथो की कठपुतली बनकर मगध का नाश नहीं करा सकता। [दोनों का प्रस्थान/अलका और सिंहरण का प्रवेश] सिहरण -देवि ! पर इसका उपाय क्या है ! अलका--उपाय जो कुछ हो, मित्र के कार्य मे तुमको सहायता करनी ही चाहिये । चन्द्रगुप्त आज कह रहे थे कि 'मैं मगध जाऊँगा देखू पर्वतेश्वर क्या करते है।' सिहरण--चन्द्रगुप्त के लिए ये प्राण अर्पित है अलके ! मालव कृतघ्न नही होते, देखो चन्द्रगुप्त और चाणक्य आ रहे है । अलका-और उधर से पर्वतेश्वर भी। [चन्द्रगुप्त, चाणक्य और पर्वतेश्वर का प्रवेश] सिंहरण-मित्र अभी कुछ दिन और ठहर जाते तो अच्छा था, अथवा जैसी गुरुदेव की आज्ञा ! चाणक्य--पर्वतेश्वर, तुमने मुझसे प्रतिज्ञा की है ! पर्वतेश्वर--मैं प्रस्तुत हूं आर्य । चाणक्य--अच्छा तो तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। सिंहरण मालव गण-राष्ट्र का एक व्यक्ति है, वह शक्ति-भर प्रयत्न कर सकता है, किन्तु सहायता बिना परिषद् की अनुमति लिए असम्भव है । मैं परिषद् के सामने अपना भेद नही खोलना चाहता। इसलिए पौरव, सहायता केवल तुम्हे करनी होगी। मालव अपने शरीर और खड्ग का स्वामी है, वह मेरे लिए प्रस्तुत है। मगध का अधिकार प्राप्त होने पर जैसा . तुम कहोगे.... पर्वतेश्वर-मैं कह चुका हूँ आर्य चाणक्य | इस शरीर में, धन में, विभव में ६०२: प्रसाद वाङ्मय