पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२३

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या अधिकार में, मेरी स्पृहा नही रह गयी। मेरी सेना के महाबलाधिकृत सिंहरण और कोष आपका है। चन्द्रगुप्त-मैं आप लोगों का कृतज्ञ होकर मित्रता को लघु नहीं बनाना चाहता । चन्द्रगुप्त सदा आपलोगों का वही सहचर है । चाणक्य-परन्तु मगध नही जाना होगा। अभी जो सन्देश मगध से मिले हैं, वे बड़े भयानक हैं ! सेनापति, तुम्हारे पिता कारागार में है--और भी चन्द्रगुप्त-इतने पर भी आप मुझे मगध जाने से रोक रहे हैं ? चाणक्य-यह प्रश्न अभी मत करो। [चन्द्रगुप्त सिर झुका लेता है|एक पत्र लिए मालविका का प्रवेश] मालविका-यह सेनापति के नाम पत्र है । चन्द्रगुप्त-(पढ़कर) आर्य, मैं जा भी नहीं सकता। चाणक्य-क्यों? चन्द्रगुप्त-युद्ध का आह्वान है- द्वन्द्व के लिए फिलिप्स का निमंत्रण है। चाणक्य-तुम डरते तो नही ? चन्द्रगुप्त-आर्य ! आप मेरा उपहास कर रहे है । चाणक्य -(हँसकर) तव ठीक है, पौरव | तुम्हारा यहाँ रहना हानिकारक होगा। उत्तरापथ की दासता के अवशिष्ट चिह्न-फिलिप्स का नाश निश्चित है। चन्द्रगुप्त उसके लिए उपयुक्त है। परंतु यवनो से तुम्हारा फिर संघर्ष मुझे ईप्सित नहीं है। यहां रहने से तुम्ही पर संदेह होगा, इसलिए तुम मगध चलो। और सिंहरण ! तुम सन्नद्ध रहना, यवन-विद्रोह तुम्ही को शात करना होगा। [सबका प्रस्थान] दृ श्या न्त र . पंचम दृश्य [मगध की रंगशाला में नन्द का प्रवेश] नन्द-सुवासिनी ! सुवासिनी-देव ! नन्द-कही दो घड़ी चैन से बैठने की भी छुट्टी नही, तुम्हारी छाया में विश्राम करने आया हूँ ! सुवासिनी-प्रभु, क्या आज्ञा है ? अभिनय देखने की इच्छा है ? नन्द-नहीं सुवासिनी अभिनय तो नित्य देख रहा हूँ। छल, प्रतारणा, विद्रोह के अभिनय देखते-देखते आँखें जल रही है। सेनापति मौर्य, जिसके बल पर मैं भूला चन्द्रगुप्त : ६०३