पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२४

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मधु पीकर था, जिसके विश्वास पर मैं निश्चित सोता था, विद्रोही-पुत्र चन्द्रगुप्त को सहायता पहुंचाता है ! उसी का न्याय करना था- न्याय हुआ कि अन्याय, हृदय संदिग्ध है । सुवासिनी-किस पर विश्वास करू? सुवासिनी-अपने परिजनों पर देव ! नन्द -अमात्य राक्षस भी नहीं, मैं तो घबरा गया है। सुवासिनी -द्राक्षासव ले आऊँ ? नन्द-ले आओ (सुवासिनी जाती है) सुवासिनी कितनी सरल है ! प्रेम और यौवन के शीतल मेघ लहलही लता पर मँडरा रहे हैं परंतु- [सुवासिनी का पात्र, कलश लिए प्रवेश/पात्र भरकर देती है] नन्द-सुवासिनी | गाओ-वही उन्मादक गान ! [सुवासिनी गाती है] आज इस यौवन के माधवी कुंज में कोकिल बोल रहा ! पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप, शिथिल हुआ जाता हृदय, जैसे अपने आप ! लाज के बन्धन खोल रहा बिछल रही है चाँदनी-छवि-मतवाली रात, कहती कम्पित अधर से, बहकाने की बात ! कौन मधु मदिरा घोल रहा ? नन्द सुवामिनी-जगत् मे और भी कुछ है-ऐसा मुझे तो नही प्रतीत होता ! उस कोकिल की पुकार केवल तुम्ही सुनती हो ? ओह ? मैं इस स्वर्ग से कितनी दूर था, मुवासिनी । (कामुक जैसी चेष्टा करता है) सुवासिनी -भ्रम है महाराज ! एक वेतन पानेवाली का यह अभिनय है। नन्द--कभी नही, यह भ्रम है तो समस्त ससार मिथ्या है। तुम सच कहती हो, निर्बोध नन्द ने कभी वह पुकार नहीं सुनी। सुन्दरि | तुम मेरी प्राणेश्वरी हो ! सुवासिनी-(सहसा चकित होकर) मैं दासी हूं' महाराज ! नन्द-यह प्रलोभन देकर ऐसी छलना ! नन्द नही भूल सकता सुवासिनी ! आओ-(हाथ पकड़ता है) सुवासिनी--(भयभीत होकर) महाराज ! मैं अमात्य राक्षस की धरोहर हूँ, सम्राट् की भोग्या नही बन मकती ! नन्द--अमात्य गक्षस इम पृथ्वी पर तुम्हारा प्रणयी होकर नही जी सकता। सुवासिनी-(सरोष) तो उसे खोजने के लिए स्वर्ग मे जाऊँगी ! [नन्द उसे बलपूर्वक पकड़ लेता है ठीक उसी समय राक्षस का प्रवेश] नन्द--(उसे देखते ही छोड़ता हुआ) तुम-अमात्य राक्षस ! ६.४ :प्रसाद वाङ्मय