पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२५

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राक्षस--हाँ सम्राट् ! एक अबला पर अत्याचार न होने देने के लिए ठीक समय पर पहुंचा। नन्द-यह तुम्हारी अनुरक्ता है, राक्षस ! मैं लज्जित हूँ। राक्षस-मैं प्रसन्न हुआ कि सम्राट् अपने को परखने की चेष्टा करते हैं। अच्छा, तो इस समय जाता हूँ। चलो सुवासिनी ! [दोनों जाते हैं | नन्द सिर झुका लेता है] [प्रबल वायु के झोंके से रंगशाला के दीप बुझ जाते हैं] दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [पाटलिपुत्र के बाहर -पथ में धनदत्त और चन्दन शीघ्रता से चलते हुए आकर रुक जाते हैं] चन्दन-भई अब तो मैं नहीं चल सकता (बैठ जाता है) धनदत्त-अरे अब तो ले लिया है मित्र थोड़े से सहारे का काम है - उठो चन्दन । सारा परिश्रम नष्ट हो जायगा। इतने दिनों की गाढी कमाई इन रत्नों और स्वर्ण खण्डों को देखो। चन्दन-तो मैं क्या करूं? देखते नहीं पैरों के छाले भागी घरवाली की तरह गाल फुलाये हैं। [एक नागरिक का प्रवेश] धनदत्त-ए ! ए ! सुनो तो तुम किधर जा रहे हो? नागरिक-मैं, मैं, मैं, (कुछ घबड़ाया हुआ-सा जाने लगता है) धनदत्त-(रोककर) भेड़ की तरह मे, मे करने लग--में पूछता हूँ कि तुम कहाँ..." नागरिक--पूछो मत भाई भारी उपद्रव"" धनदत्त--क्या? नागरिक --नगर में शीघ्र ही भयानक उपद्रव मचने वाला है। नन्दराज ने अंधेर मचा रखा है। मेरी स्वामिनी आज एक सप्ताह से बाहर चली गई है। उनकी निधि का क्या किया जाय ! धनदत्त-क्या बड़ी लम्बी-चौड़ी निधि है। नागरिक-तीन भूगर्भ सोने से खचाखच भरे हैं और सार्थवाह का वर्षों से पता नहीं ! स्वामिनी ने कहा कि मैं क्या यहाँ लुटेरों के हाथ प्राण दूंगी । तब मैं भी जाता हूँ। चन्द्रगुप्त : ६०५