पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२६

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धनदत्त-रे मूर्ख । इतनी सम्पत्ति छोडकर क्यों जा रहा है--चल हम लोग उसकी रक्षा करेंगे। चन्दन--हाँ, हो क्या हम लोगों के रहते कोई कुछ कर सकता है ? पंचनद के युद्ध में हमारी वीरता तुमने नहीं सुनी ?' धनदत्त-एक-एक खड्ग के प्रहार से डेढ-डेढ सौ सैनिक-हाँ ! सिकन्दर ने पृथ्वी चूमकर मुझसे प्राण-भिक्षा मांगी थी। दिखाऊँ अपना वह हाथ ? चन्दन---अरे ठहरो भी । नागरिक--परंतु तुम मेरी स्वामिनी के पति को नही जानते, मैं तो नया-नया आया हूं। सुना है कि उनको तीन आँखे है । जब मामने की ऑखो से देखते हैं तब गुप्त आँखे दूसरा संकेत करती है । दो हाथो मे देते हैं । उनके दो अदृश्य हाथ न जाने कैसे उसके घर की मारी सम्पत्ति बटोर लाते है। सहस्रो योजन की लम्बी यात्रा करते है। किन्तु गिद्ध की तरह उनकी दृष्टि अपनी सम्पत्ति को देखती रहती है। सुना है उनका नाम है--धनदत्त । धनदत्त- --(आश्चर्य से) क्या कहा धनदत्त ! नागरिक हां, हाँ उनकी स्त्री मणिमाला भी कम चतुर नही । ऊपर की सारी सम्पत्ति लेकर अपने विश्वासी मित्र के साथ टल गई है और निधि पर यक्ष का पहरा बैठा गयी है। धनदत्त-भाई। चन्दन यह क्या सुन रहा हूँ? मणिमाला का विश्वासी मित्र कहां से टपक पडा। नागरिक -अरे | वह तो रात-दिन वही रहता था। सुना है कि स्वयं सार्थवाह उसे भेजा था। धनदत्त-अरे चुप धनदत्त इतना मूर्ख नही कि अपनी स्त्री के लिए एक विश्वासी मित्र खोजकर भेज दे। कौन पिशाच है--चन्दन चल तो-देखे। नागरिक--च् च् घ् च अरे वह तपस्वी है। चन्दन-क्या बडी-वटी जटावाला दढियल ? नागरिक--हाँ, हाँ। चन्दन-वन-विलाव-मी बडी-बड़ी आँखे? नागरिक-हाँ जी! धनदत्त-और बात-बात मे कहता है कि मनुष्य कुछ कर ही नही सकता। नागरिक-ठीक पहुँचे । यही तो उनका उपदेश है। धनदत्त-दुष्ट आजीवक ! मार डाला रे (बैठकर कराहने लगता है) चन्दन-कभी-कभी इनको ऐसा हो जाता है। भाई जाकर एक शिविका ने आओ। इनको किसी वैद्य के पास ले चलू (नागरिक का प्रस्थान) १०६ :प्रसाद वाङ्मय ।