पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२७

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धनदत्त-(लम्बी-लम्बी सांस फेंककर) चन्दन ! अब क्या होगा रे ? चन्दन-चुप भी रहो। शिविका पर सब लादकर पहिले धीरे से घर पर तो पहुँच देखो--वहाँ घुसने पाते हो कि नहीं। धनदत्त-अरे वहाँ तो यक्ष बैठा है रे । [शिविका पर एक वैद्य का प्रवेश नागरिक-यह लीजिए शिविका भी, वैद्य भी... धनदत्त -ओहो हो, हो । अरे, रे, रे मरे, रे, रे । चन्दन--क्यों भाई मैंने तो तुमसे शिविका लाने के लिए कहा था। वैद्य जी को क्यों कष्ट दिया। (धनदत्त से) निकालो स्वर्ण मुद्रा, चले थे अरे, रे करने । नागरिक-जाते तो वैद्य के ही पास अब यह वैद्य आ गये तो लगे बनने । न हो तो उतर आइये वैद्य जी। इन्हें शिविका पर जाने दीजिये। अपना और आपका दोनों का भाड़ा ये ही देंगे। हाँ और क्या। हमलोग टहलते टहलते चले चलेगे। [वैध शिविका से उतरकर धनदत्त की तोंद को देखता है] वैट-ठीक ! चर् चर्--चरक ने जो कहा है वह बिलकुल ठीक है। (चन्दन से) रोगी तो मरणासन्न है। खाता है तो मुँह चलने लगता है न, चलने पर पैर आगे-पीछे पड़ते हैं न, और सोने पर आंखें बन्द हो जाती हैं। चन्दन--सब होता है, पर तुमसे औषधि नही चाहता। वैद्य--(ऊंचा सुनने का अभिनय करके) मो तो ठीक ही है। 'प्राणः कण्ठगतरैपि' कहा है चचा चरक ने एक मात्रा तो देनी ही होगी। धनदत्त- -(क्रोध से) मैं कहता हूँ चन्दन तुम इसको हटाओ। मेरे तो प्राण निकल रहे हैं तुमको हंसी सूझती है । मैद्य-किंचित-किंचित् प्रलाप भी कभी-कभी (अपने से बातें करता हुआ) वही तो-पकड़ लिया। चन्दन--अब छुटकारा नही । भाई धनदत्त दो स्वर्ण मुद्रा। धनदत्त-क्या कह रहा है यह ? मणिमाला तुमने इतना बड़ा विश्वासघात किया हाँ! गैद्य--कितना विलम्ब हुआ है । धनदत्त--यही एक सप्ताह का। एक सप्ताह पहले ही पहुँच जाता तो यह दिन क्यों देखने में आता रे ! गैद्य--(जैसे कुछ सुन लिया हो) एक सप्ताह । पूरी विलम्बिका है । अंतड़ियों में विद्रधि है। नाकों में श्लीपद हो गया है (नाड़ी देखकर) देखते नही इसका पर भारी है। बहुत धीरे-धीरे चल सकती है। स्नायुजाल में विसर्प है। भयानक ! तो चन्द्रगुप्त : ६०७