पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२८

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भी एक मास में तो अच्छा हो ही जायगा। मेढ़क खाये हुए सर्प की केचल में लपेट- कर सत्रह गृहगोपिका का तुषाग्नि द्वारा तेल निकाला जायगा। फिर चन्दन--तुम तो पूरे चिडीमार हो जी ! धनदत्त--चन्दन इसको हटा किमी तरह। जी मिचलाने लगा। [चन्दन अपनी पिटारी शिविका में रखता है और धनवत्त को बैठने का संकेत करता है, धनदत्त उछलकर उसमें जा बैठता है| वैद्य आश्चर्य से देखने लगता है दूसरी ओर से आजीवक के साथ मणिमाला का प्रवेश/वह धनदत्त को बड़े आश्चर्य से देखती है] धनदत्त--यह क्या ? मणिमाला ! मणिमाला--आर्यपुत्र ! ओह | मैं कितनी घबडा रही थी। यह तो कहिये महात्माजी मिल गये । मेरे प्राण बच गये। धनदत्त-हूँ ! बच गये न । (आजीवक की ओर देखता है) मणिमाला--यदि इनकी कृपा न होती तो अब तक प्राण न बचते। इनकी सान्त्वना से मेग विश्वास दृढ़ हो गया कि नियति जो चाहती है करती है और वही होकर रहेगा। धनदत्त-अरे, रे, रे ! मैं तो पडा ही था । तू भी इसी चक्कर में पड़ गयी। आजीवक--सार्थवाह ! अब मुझे नियति का आदेश है कि यहां से चल दे। मैद्य-कुछ चिन्ता नही भद्रे ! अब मै आ गया । ये निरापद है । समझा न-- ! वह तेल ! 1 धनदत्त--अरे | नही | नही ! । मुझे क्या हो गया है ? मैं क्या करूं ? [चाणक्य का प्रवेश चाणक्य--तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो जो ? मणिमाला--हमलोग नन्द के अत्याचार से पीड़ित है। यह सब सम्पत्ति मेरे पति की अनुपस्थिति में लेना चाहता था । उम समय तो एक आजीवक की कृपा से बच गयी नही तो बन्दी कर ली जाती। पर अब मेरे पति भी आ गये हैं अब हमलोग क्या करे। चाणक्य--चलो ! हमलोग तुम्हारी रक्षा करेगे। मेरे साथ सहस्त्रों सैनिक हैं। चन्दन--तब मै क्या करूं? मेरी माधवो ? चाणक्य--माधवी वही ब्राह्मणी जो पञ्चनद मे राजकुमारी कल्याणी के साथ थी। चन्दन-हाँ ! हो ! ! वही। चाणक्य--वह मेरे सैनिकों के साथ आ रही है। ६०८ : प्रसाद वाङ्मय