पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६२९

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धनदत्त-चलिये । आपलोग मेरे गृह पर । [सबका प्रस्थान दृश्या न्त र सप्तम दृश्य ? [कुसुमपुर का प्रत्यन्त/चाणक्य, मालविका और अलका] मालविका-सुवासिनी और राक्षस स्वतन्त्र है ! उनका परिणय शीघ्र ही होगा । इधर मौर्य कारागार में, वररुचि अपदस्थ नागरिक लोग नन्द की उच्छृखलताओं से असन्तुष्ट' चाणक्य--(बात काटते हुए) ठीक है, ममय हो चला है ! मालविका तुम नर्तकी बन सकनी हो ? मालविका-हां, मैं नृत्य-कला जानती हैं । चाणक्य-तो नन्द की रंगशाला में जाओ और लो यह मुद्रा तथा पत्र, राक्षस का विवाह होने के पहले ठीक एक घड़ी पहले--नन्द के हाथ में यह पड़े और पूछने पर बतला देना--किसी ने सुवासिनी नाम की स्त्री को देने के लिए यह दिया था--परन्तु मुझसे भेंट न हो सकी। मालविका-(स्वगत) क्या क्या असत्य बोलना होगा ! चन्द्रगुप्त के लिए सब करूंगी । (प्रगट) अच्छा । चाणक्य--मैंने सिंहरण को लिख दिया था कि चन्द्रगुप्त को शीघ्र यहां भेजो। तुम यवनों के सिर उठाने पर उन्हे शान्न करके आना, तब तक अलका मरी रक्षा कर लेगी। मैं चाहता हूँ कि सब मेना वाणकों के रूप में धीरे-धीरे कुसुमपुर में इकट्ठी हो जाय । जिम दिन राक्षस का ब्याह होगा, उसी दिन विद्रोह होगा और उसी दिन चन्द्रगुप्त राजा होगा ! अलका-परन्तु फिलिप्स के द्वन्द्व-युद्ध से चन्द्रगुप्त को लौट तो आने दीजिये, क्या जाने क्या हो ! चाणक्य--क्या हो । वही होकर रहेगा जिसे चाणवयं ने विचार करके ठीक कर लिया है। किन्तु अवसर पर एक क्षण का विलम्ब असफलता का प्रवर्तक हो जाता है । (मालविका जाती है) अलका-गुरुदेव ! महानगरी कुरणपुरी का ध्वंस और नन्द-पराजय इस प्रकार सम्भव है ? चाणक्य--अलके ! चाणक्य अपना कार्य अपनी बुद्धि मे साधित करेगा। तुम चन्द्रगुप्त : ६०९