पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३०

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1 देखती भर रहो और मैं जो बताऊँ-करती चलो। मालविका अभी बालिका है, उसकी रक्षा आवश्यक है । उसे देखो तो"""(अलका जाती है) चाणक्य--वह सामने कुसुमपुर है, जहाँ मेरे जीवन का प्रभात हुआ था। मेरे उस सरल हृदय में उत्कट इच्छा थी कि कोई भी सुन्दर मन मेरा साथी हो । प्रत्येक नवीन परिचय मे उत्सुकता थी और उसके लिए मन मे सर्वस्व लुटा देने की सन्नद्धता थी ! परन्तु संसार--कठोर संसार ने सिख' दिया है कि तुम्हें परखना होगा ! समझदारी आने पर यौवन चला जाता है जब तक माला गूंथी जाती है, तब तक फूल कुम्हला जाते हैं ! जिससे मिलने के संभार की इतनी धूमधाम, सजावट, बनावट होती है, उसके आने तक, मनुष्य अपने हृदय को सुन्दर और उपयुक्त नहीं बनाये रह सकता। मनुष्य की चंचल स्थिति तब तक श्यामल कोमल हृदय को मरुभूमि बना देती है। यही तो विषमता है ! मै--अविश्वास, क्टचक्र और छलनाओं का कंकाल, कठोरताओं का केन्द्र ! आह ! तो इस विश्व मे मेरा कोई सुहृद् नही ? है-मेरा संकल्प | अब मेरा आत्माभिमान ही मेरा मित्र है। और थी--एक क्षीण रेखा--वह जीवन-पट से धुल चली है। धुल जाने दूं? सुवासिनी न-न-न, वह कोई नही। मैं अपनी प्रतिज्ञा पर आसक्त हूँ-- --भयानक रमणीयता है। आज उस प्रतिज्ञा में जन्मभूमि के प्रति कर्त्तव्य का यौवन चमक रहा है । तृणशय्या पर आधे पेट खाकर सो रहनेवाले के सिर पर दिव्य यश ा स्वर्ण-मुकुट ! और सामने सफलता का स्मृति-सौध (आकाश की ओर देखकर) वह--इन लाल बादलों में दिग्दाह का धूम मिल रहा है ! भीषण रव से सब जैसे चाणक्य का नाम चिल्ला रहे हैं। (देखकर) है ! यह कौन एमि-संधि तोडकर सर्प के समान निकल रहा है । छिपकर देखें। [छिप जाता है/एक दूह को मिट्टी गिरती है|उसमें से वनमानुष के समान शकटार निकलता है] शकटार--(चारों ओर देखकर ऑख बन्द कर लेता है-फिर खोलता हुआ) आँखे नही सह मकनी, इन्ही प्रकाश किरणो के लिए तड़प रही थी ! ओह, तीखी है ! तो क्या मै जीवित हूं? कितने दिन--कितने महीने-कितने वर्ष हुए । नही स्मरण है। अन्धकप की प्रधानना सर्वोपरि थी। सात लडके भूख से तड़पकर मरे। कृतज्ञ हूँ- --उस अन्धकार का -जिसने उन विवर्ण मुखों को नही देखने दिया, केवल उनके दम तोडने का क्षीण शब्द सुन सका। फिर भी जीवित रहा-सत्तू और नमक पानी से मिलाकर--अपनी नसो से रक्त पीकर जीवित रहा ! प्रतिहिंसा के लिए । पर अब शेष है--दम घुट रहा है ओह [गिर पड़ता है/चाणक्य पास आकर कपड़ा निचोड़कर मुंह में जल डाल सचेत करता है] ६१०: प्रसाद वाङ्मय