पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३२

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शकटार-(चाणक्य का गला पकड़कर) घोंट दूंगा गला, यदि फिर यह नाम तुमने लिया । मुझे नन्द से प्रतिशोध ले लेने दो, फिर चाहें डौंडी पीटना। चाणक्य-(उसके हाथ हटाते हुए) वह सुवासिनी नन्द की रंगशाला में है। मुझे पहचानते हो? शकटार-नही तो-(देखता है)। चाणक्य-तुम्हारे प्रतिवेशी, सखा, ब्राह्मण चणक का पुत्र विष्णुगुप्त । तुम्हारी दिलाई हुई जिसकी ब्रह्मवृत्ति छीन ली गयी, जो तुम्हारा सहकारी जानकर निर्वासित कर दिया गया, मैं उसी चणक का पुत्र चाणक्य विष्णुगुप्त हूँ', जिसकी शिखा पकड़कर राज्यसभा में खीची गयी, जो बन्दीगृह मे मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था ! करोगे मुझ पर विश्वास? शकटार -(विचारता हुआ खड़ा हो जाता है) करूँगा, जो तुम कहोगे वही करूंगा। किसी तरह प्रतिशोध वाहिये । चाणक्य--तो चलो मेरी झोपड़ी मे, और इस सुरग को घास-फूम से ढंक दो । [सुरंग ढंककर दोनों जाते हैं]] दृ श्या न्त र अष्टम दृश्य [नन्द के राज-मन्दिर का एक प्रकोष्ठ] नन्द -आज क्यों मेरा मन अनायास ही गंकित हो रहा है । कुछ नही होगा। [सेनापति मौर्य की स्त्री को साथ लिये हुए वररुचि का प्रवेश] नन्द--कौन है यह स्त्री? वररुचि--जय हो देव, यह सेनापति मौर्य की स्त्री है। नन्द--क्या कहना चाहती है ? स्त्री-राजा प्रजा का पिता है। वही उसके अपराधो को क्षमा करके सुधार मकता है। चन्द्रगुप्त बालक है, सम्राट् ! उसके अपराध मगध से कोई सम्बन्ध नही रखते --तब भी वह निर्वासित है। परन्त सेनापति पर क्या अभियोग है । मैं असहाय--मगध की प्रजा, श्री चरणों में निवेदन करती हूँ--मेरा पति छोड दिया जाय । पति और पुत्र दोनों से वंचित न की जाऊँ। नन्द-रमणी ! राजदण्ड पति और पुत्र के मोहजाल से सर्वथा स्वतन्त्र है । षड्यन्त्रकारियों के लिए बहुत निष्ठर है--निर्मम है--कठोर है, तुम लोग आग की ज्वाला में खेलने का फल भोगो। नन्द इन आंसू भरी आँखों और आंचल पसार कर भिक्षा के अभिनय में नहीं भुलवाया जा सकता। . ६१२ · प्रसाद वाङमय