पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३७

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नागरिक- आश्चर्य । हमलोग आज क्या स्वप्न देख रहे है ? अभी लौटना चाहिये । चलिये आपलोग भी। शकटार--परन्तु मेरी रक्षा का भार कौन लेता है-- [सब इधर-उधर देखने लगते है, चन्द्रगुप्त तन कर खड़ा हो जाता है] चन्द्रगुप्त- मैं लेता हूँ | उन सब पीडित, आघात-जर्जर, पद-दलित लोगों का संरक्षक मैं हूं-जो मगध की प्रजा है । चाणक्य-साधु चन्द्रगुप्त [सब उत्साहित होते है/पर्वतेश्वर चाणक्य और वररुचि को छोड़कर सब जाते हैं] वररुचि- चाणक्य । यह क्या दावाग्नि फैला दी तुमने ? चाणक्य-उत्पीडन की निनगारी को अत्याचारी अपने ही अंचल मे छिपाये रहता है ! कात्यायन | तुमने अन्धकूप का सुख क्यो लिया ? कोई अपराध किया था तुमने ? वररुचि -नन्द की भूल थी। उसे अब भी सुधारा जा सकता है। ब्राह्मण ! धापानिधि ! भूल जाओ ! चाणक्य--प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर म-नुम गाथ ही वैखानस होगे कात्यायन ! शक्ति हो जाने दो, फिर क्षमा का विचार करना । चलो पर्वतेश्वर | सावधान ! [सबका प्रस्थान दृश्या न्त र दशम दृश्य [नन्द को राजसभा | सुवासिनी और राक्षस बन्दी-वेश में] नन्द -अमात्य राक्षस, यह कोन सी मन्त्रणा थी ? यह पत्र तुम्ही ने लिखा है ? राक्षस-( (पत्र लेकर पढ़ता हुआ)-'मुवासिनी, उस कारागार से शीघ्र. निकल भागो, इस स्त्री के साथ आकर मुझसे मिलो। मैं उत्तरापथ मे नवीन राज्य की स्थापना कर रहा हूँ। नन्द से फिर समझ लिया जायगा।' (नन्द की ओर देखकर) आश्चर्य ! मैंने तो यह नही लिखा | यह कैसा प्रपंच है और किसी का नही, उसी ब्राह्मण चाणक्य का महाराज, सतर्क रहिये, अपने अनुकूल परिजनों पर भी विश्वास न कीजिये । कोई भयानक घटना होने वाली है। नन्द--इस तरह से मै प्रताड़ित नही किया जा सकता--देखो यह तुम्हारी मुद्रा है ! (मुद्रा देता है राक्षस देखकर सिर नीचे कर लेता है) कृतघ्न ! बोल- उत्तर दे! चन्द्रगुप्त : ६१०