पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नवा दृश्य [चन्द्रगुप्त बैठा है । तरलिका पान ले आती है । दरबार] चन्द्रगुप्त-तरलिके ! आज पान तो बहुत ही अच्छा लगाया है बहुत दिनों से इधर ऐसा स्वाद पान का नहीं मिला था। तरलिका-प्रभ की रुचि विचित्र है । मैं इतनी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ। चन्द्रगुप्त-तरलिके ! मैं सच कहता हूँ। तरलिका-नाथ ! जब चित्त को प्रसन्नता मिलती है तब बुरी बस्तु भी भली मालूम होती है। चन्द्रगुप्त-तरलिके ! मैं तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होता हूँ। तरलिका -महाराज, बहुत दिनों के बाद आज मैंने एक माला बनायी है, उसे आप स्वीकार करें। [माला पहना देती है] चन्द्रगुप्त-हिंसकर) इन फूलों का रस तो भंवरे ले चुके है। तरलिका-(हंसकर) महाराज । यह तो भंवरों की ही धृष्टता है, कलियों का क्या दोष? [गाती है-राग माँड़] पाया जिसमे प्रेम-रस, सौरभ और सोहाग, अली उसी ही कली से मिलता सह-अनुराग । अली नहिं एक कली का है। कुसुम धूलि से पूर हो चलता है उस पन्थ । डरे न कण्टक को अली पढे प्रेम का ग्रन्थ । अली नहिं एक गली का है। रजनी मे सुख केलि को किया कमलिनी पास । भयो मुद्रिता तब तुरत अली चमेली पास । पढ़े यह पाठ छली का है। चाहे होय कुमोदिनी या मल्ली का पुंज । अलि को केवल चाहिये सुखमय क्रीड़ा कुंज ॥ सुप्रेमी रंगरली अली नहिं एक कली का है। चन्द्रगुप्त-तरलिके ! कविता नयी है। तरलिका-(हँसकर) महाराज समय ही नया है । चन्द्रगुप्त-तरलिके ! मैं तुमसे इस समय बहुत प्रमन्न हुआ, अच्छा जाओ। का ४८: प्रसाद वाङ्मय