पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४०

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वररुचि-अनर्थ । (सब स्तब्ध रह जाते हैं) राक्षस-चाणक्य मुझे भी कुछ बोलने का अधिकार है ? चन्द्रगुप्त-अमात्य राक्षस के बन्धन खोल दो। आज मगध के सब नागरिक स्वतन्त्र है। [राक्षस, सुवासिनी, कल्याणी के बन्धन खुलते है] राक्षस-राष्ट्र इस तरह नहीं चल सकता। चाणक्य-तब? राक्षस-परिषद् की आयोजना होनी चाहिये। नागरिक वृन्द-राक्षस, वररुचि, शकटार, चन्द्रगुप्त और चाणक्य की सम्मिलित परिषद् की हम घोषणा करते है। चाणक्य-परन्तु उत्तरापथ के समान गणतन्त्र की योग्यता मगध मे नही और मगध पर विपत्ति की भी सम्भावना है। प्राचीनकाल से मगध साम्राज्य रहा है, इसलिए यहाँ एक सबल और सुनियन्त्रित शासक की आवश्यकता है। आपलोगो को यह जान लेना चाहिये कि यवन अभी हमारी छाती पर है । नागरिक -तो कौन इसके उपयुक्त है ? चाणक्य -आप ही लोग इसे विचारिये। शकटार हमलोगो के उद्धारकर्ता, उत्तरापथ के जनेक ममरो के विजेता- वीर चन्द्रगुप्त नागरिक चन्द्रगुप्त की जय । चाणक्य - अस्तु, बढो चन्द्रगुप्त । सिंहासन शून्य नही रह सकता। अमात्य राक्षस ! सम्राट् का अभिषेक कीजिये। [मृतक हटाये जाते है | कल्याणी दूसरी ओर जाती है | राक्षस चन्द्रगुप्त का हाथ पकड़कर सिंहासन पर बैठाता है] सब नागरिक-सम्राट चन्द्रगुप्त की जय | मगध की जय । चाणक्य -मगध के स्वतन्त्र नागरिको को बधाई है। आज आपलोगो के राष्ट्र का नवीन जन्म-दिवस है। स्मरण रखना होगा कि ईश्वर ने सब मनुष्यों को स्वतन्त्र उत्पन्न किया है, परन्तु व्यक्तिगत स्वतन्त्रता वहीं तक दी जा सकती है, जहाँ दूसरों को स्वतन्त्रता मे बाधा न पड़े। यही राष्ट्रीय नियमों का मूल है । वत्स चन्द्रगुप्त | स्वेच्छाचारी शासन का परिणाम तुमने स्वय देख लिया है, अब मन्त्रि-परिषद की मम्मति से मगध और आर्यावर्त के कल्याण मे लगो। [सम्राट चन्द्रगुप्त की जय' का घोष] यव निका ६२०:प्रसाद वाङ्मय