पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४२

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[पर्वतेश्वर का फिर प्रवेश] पर्वतेश्वर-- तुम कौन हो सुन्दरी ? मैं भ्रमवश चला गया था। कल्याणी--तुम कौन हो? पर्वतेश्वर - पर्वतेश्वर। कल्याणी-मैं हूँ कल्याणी, जिसे नगर-अवरोध के समय तुमने बन्दी बनाया था। पर्वतेश्वर-राजकुमारी ! नन्द की दुहिता तुम्ही हो ? कल्याणी-हां पर्वतेश्वर ! पर्वतेश्वर-तुम्ही से मेरा विवाह होनेवाला था? कल्याणी - अब यम से होगा। पर्वतेश्वर-नही सुन्दरी, ऐसा भरा हुआ यौवन । कल्याणी -सब छीनकर अपमान भी ! पर्वतेश्वर - तुम नही जानती हो, मगध का आधा राज्य मेरा है। तुम मेरी प्रियतमा होकर सुखी रहोगी। कल्याणी-मे अब सुख नही चाहती। सुख अन्छा है या दु.ख-मैं स्थिर न कर सकी । तुम मुझे कष्ट न दो। पर्वतेश्वर-हमारे-तुम्हारे मिल जाने गे मगध का पूरा राज्य हमलोगों का हो जायगा । उत्तरापथ की संकटमयी परिस्थिति मे अलग रहकर यही शान्ति मिलेगी। कल्याणी--चुप रहो। पर्वतेश्वर -सुन्दरी तुम्हें देख लेने पर ऐसा नही हो सकता [उसे पकड़ना चाहता है, वह भागती है, परन्तु पर्वतेश्वर पकड़ ही लेता है | कल्याणी उसी का छुरा निकालकर उसका वध करती है | चीत्कार सुनकर चन्द्रगुप्त आ जाता है] चन्द्रगुप्त -कल्याणी ! कल्याणी । ! यह क्या ! ! ! कल्याणी - जो होना था- चन्द्रगुप्त ! यह पशु मेरा अपमान करना चाहता था-मुझे भ्रष्ट करके, अपनी मंगिनी बनाकर पूरे मगध पर अधिकार करना चाहता था। परन्तु मौर्य ! करयाणी ने वरण किया था केवल एक पुरुष को-वह था चन्द्रगुप्त । चन्द्रगुप्त --क्या यह मच है कल्याणी ! कल्याणो-हाँ, यह सच है। परन्तु तुम मेरे पिता के विरोधी हुए, इसलिए उस प्रणय को--प्रेम-पीड़ा को--मै पैरों से कुचलकर, दबाकर खड़ी रही ! अब मेरे लिए कुछ भी अवशिष्ट नही ! पिता ! लो मैं भी आती हूँ ! (अचानक छुरी मारकर आत्महत्या करती है, चन्द्रगुप्त उसे गोद में उठा लेता है)। चाणक्य -(प्रवेश करके) चन्द्रगुप्त ! आज तुम निष्कांटक हुए ! चन्द्रगुप्त -गुरुदेव ! इतनी क्रूरता ? ६२२: प्रसाद वाङ्मय