पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४३

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चाणक्य- महत्त्वाकांक्षा का मोती निष्ठरता की सीपी में रहता है ! चलो अपना काम करो, विवाद करना तुम्हारा काम नहीं। अब तुम स्वच्छन्द होकर दक्षिणापथ जाने की आयोजना करो। (प्रस्थान) [चन्द्रगुप्त कल्याणी को लिटाकर देखता है] [मन्द होते प्रकाश में दृश्यान्तर]] द्वितीय दृश्य 1 ? अवसर [पथ में राक्षस और सुवासिनी] सुवासिनी -राक्षस ! मुझे क्षमा करो ! राक्षस-क्यों सुवासिनी; यदि वह बाधा एक क्षण और रुकी रहती तो क्या हमलोग इस सामाजिक नियम के बन्धन में बंध न गये होते ! अब क्या हो गया ? सुवासिनी- अब पिताजी की अनुमति आवश्यक हो गयी है । राक्षस-(व्यंग से) क्यों? क्या अब वह तुम्हारे ऊपर अधिक नियन्त्रण रखते हैं ? अब उनका तुम्हारे विगत जीवन से कुछ मम्पर्क नहीं ? क्या... सुवासिनी-अमात्य ! मैं अनाथ थी जीविका के लिए मैंने चाहे कुछ भी किया हो, पर स्त्रीत्व नही बेचा। राक्षस-सुवासिनी, मैंने सोना था तुम्हारे अंक मे सिर रखकर विश्राम करते हुए मगध की भलाई मे विपथगामी न हूँगा | पर तुमने ठोकर मार दिया ? क्या तुम नहीं जानती हो-मेरे भीतर एक दुष्ट-प्रतिभा सदैव सचेष्ट रहती है न दो-उसे न जगाओ ! मुझे पाप से बचाओ ! सुवासिनी-मैं तुम्हारा प्रणय अग्वीकार नहीं करती। किन्तु अब इसका प्रस्ताव पिताजी से करो। तुम मेरे रूप और गुण के ग्राहक हो, और सच्चे ग्राहक हो, परन्तु राक्षस ! मैं जानती हूँ कि यदि व्याह होडकर अन्य किसी भी प्रकार से मैं तुम्हारी हो जाती तो तुम.ब्याह से अधिक सुखी होते | उधर पिता ने, जिनके लिए मेग चारित्र्य, मेरी निष्कलंकता नितान्त वांछनीय हो सकती है, मुझे इस मलीनता के कीचड़ से कमल के समान हाथों मे लिया है ! मेरे चिर दुखी पिता ! राक्षस, तुम वासना से उत्तेजित हो, तुम नही देख रहे हो कि सामने एक जुड़ता हुआ घायल हृदय बिछड़ जायगा, एक पवित्र कल्पना सहज ही नष्ट हो जायगी ! राक्षस-यह मैं मान लेता, कदाचित् इस पर पूर्ण विश्वास भी कर लेता, परन्तु सुवासिनी मुझे शंका है । चाणक्य का तुम्हारा बाल्य परिचय है। तुम शक्तिशाली की उपासना . चन्द्रगुप्त : ६२३