पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चाणक्य--मालविका, पाटलिपुत्र षड्यन्त्रों का केन्द्र हो रहा है ! सावधान ! चन्द्रगुप्त के प्राणों की रक्षा तुम्हीं को करनी होगी। दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [प्रकोष्ठ में चन्द्रगुप्त] चन्द्रगुप्त-विजयों की सीमा है, परन्तु अभिलाषाओं की नही ! मन ऊब-सा गया है। झंझटों से घड़ी-भर अवकाश नहीं। गुरुदेव और क्या चाहते हैं, समझ में नहीं आता। इतनी उदासी क्यों ? मालविका ! मालविका-(प्रवेश करके) सम्राट की जय हो ! चन्द्रगुप्त-मैं सबसे विभिन्न एक भय-प्रदर्शन-सा न गया हूँ। मेरा कोई अंतरंग नहीं, तुम भी मुझे सम्राट् कहकर पुकारती हो ! मालविका-देव, फिर मै क्या कहूँ ! चन्द्रगुप्त-स्मरण आता है-मालव का उपवन और उसमें अतिथि के रूप में मेरा रहना। मालविका-सम्राट्, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं। चन्द्रगुप्त-संघर्ष ! युद्ध--देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो, मालविका ! आशा और निराशा का युद्ध, भावों और अभावों का द्वन्द्व ! कोई कमी नही, फिर भी न जाने कौन मेरी सम्पूर्ण-सूची में रिक्त-चिह्न लगा देता है । मालविका, तुम मेरी ताम्बूलवाहिनी हो, मेरे विश्वास को-मित्रता की प्रतिकृति हो । देखो, मैं दरिद्र हूँ कि नहीं, तुमसे मेरा कोई रहस्य गोपनीय नही ! मेरे हृदय में कुछ है कि नहीं, टटोलने से भी नहीं जान पड़ता ? मालविका-आप महापुरुष हैं, साधारणजन-सुलभ दुर्बलता न होनी चाहिये आपमें देव ! बहुत दिनों पर मैने एक माला बनाई है । [माला पहनाती है] चन्द्रगुप्त-मालविका, इन फूलों का रस तो भौरे ले चुके हैं । मालविका-निरीह कुसुमों पर दोषारोपण क्यों ? उनका काम है सौरभ खेरना, यह उनका मुक्त है । उसे चाहे भ्रमर ले पवन ! चन्द्रगुप्त-कुछ गाओ तो मन बहल जाय । चन्द्रगुप्त : ६२७