पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४८

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[मालविका गाती है] मधुप कब एक कली का है ! पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग, बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग, बिहारी-कुंजगली का है। कुसुम धूल से धूसरित, चलता है उस राह, कांटों में उलझा तवपि, रही लगन की चाह, बावला-रंगरली का है ! हो मल्लिका, सरोजिनी, या यूथी का पूंज, अलि को केवल चाहिये, सुखमय क्रीड़ा-कुंज, मधुप कब एक कली का है ! चन्द्रगुप्त-मालविका, मन मधुप से भी चंचल और पवन से भी प्रगतिशील है-वेगवान है। मालविका-उसका निग्रह करना ही महापुरुषों का स्वभाव है देव ! [प्रतिहारी का प्रवेश और संकेत/मालविका उससे बात कर लौटती है] चन्द्रगुप्त-क्या है? मालविका -कुछ नही कहती थी कि यह प्राचीन राज-मन्दिर अभी परिष्कृत नहीं, इसलिए मैंने चन्द्रसोध में आपके शयन का प्रबन्ध करने के लिए कह दिया है। चन्द्रगुप्त-जैसी तुम्हारी इच्छा-(पान करता हुआ) कुछ और गाओ मालविका ! आल.तुम्हारे स्वर मे स्वर्गीय मधुरिमा है । [गाती है] बज रही बंशी आठो धाम की। अब तक गूंज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की हुए चपल मृगनैन मोह-वश बजी विपंची काम की रूप-सुधा के दो दृग प्यालों ने ही मति बेकाम की, बज रही बंशी आठो याम की। [कंचुकी का प्रवेश] कंचुकी -जय हो देव-शयन का समय हो गया। [प्रतिहारी, कंचुकी सहित चन्द्रगुप्त का प्रस्थान] मालविका-जाओ प्रियतम ! सुखी जीवन बिताने के लिए और में रहती हूँ चिर-दुखी जीवन का अन्त करने के लिए । जीवन एक प्रश्न है, और मरण है उसका अटल उत्तर ! आर्य चाणक्य की आज्ञा हूं-'आज घातक इस शयनगृह में भावेंगे, ६२८:प्रसाद वाङ्मय