पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४९

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इसलिए चन्द्रगुप्त यहाँ न सोने पावें और षड्यन्त्रकारी पकड़े जायें ।' (शय्या पर बैठकर) यह चन्द्रगुप्त की गय्या है। ओह, आज प्राणों में कितनी मादकता है। मैं"मैं कहा हूँ-कहां ! स्मृति, तू मेरी तरह सो जा! अनुराग तू रक्त से भी रंगीन बन जा ! [गाती है] ओ मेरी जीवन की स्मृति-ओ अन्तर के आतुर अनुराग! बैठ गुलाबी विजन उषा में गाते कौन मनोहर राग? चेतन सागर उमिल होता यह कैसी कम्पनमय तान, यों अधीरता से न मोड़ लो अभी हुए हैं पुलकित प्रान ! कैसा है यह प्रेम तुम्हारा युगल मूत्ति की बलिहारी ! यह उन्मत्त विलास-बता दो कुचलेगा किसकी क्यारी? इस अनन्त जलनिधि के नाविक, हे मेरे अनन्त' अनुराग! पाल सुनहला बन तनती है स्मृति, यों बस अतीत में जाग । कहां ले चले कोलाहल से मुखरित तट को छोड़ सुदूर- आह ! तुम्हारे निर्दय डाँड़ों से होती हैं लहरें चूर देख नहीं सकते तुम दोनों चकित निराशा है भीमा, बहको मत, क्या न है बता दो-क्षितिज तुम्हारी नव-सीमा ? [शयन] दश्या न्त र पंचम दृश्य [प्रभात में राजमन्दिर का एक पन्त] चन्द्रगुप्त-(अकेले टहलता हुआ) चतुर सेवक के समान संसार को जगाकर अन्धकार हट गया। रजनी की निस्तब्धता काकली से चंचल हो उठी है। नीला आकाश स्वच्छ होने लगा है, या निद्राक्लान्त निशा, उषा की शुभ्र चादर ओढ़कर नींद की गोद में लेटने चली है। यह जागरण का अवसर है । जागरण का अर्थ है कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण होना। और कर्मक्षेत्र क्या है ? जीवन-संग्राम ! किन्तु भीषण संघर्ष करके भी मैं कुछ नहीं हूँ। मेरी सत्ता एक कठपुतली-सी है। तो फिर""मेरे पिता, मेरी माता, इनका तो सम्मान आवश्यक था। वे चले गये, मैं देखता हूँ कि नागरिक तो क्या, मेरे आत्मीय भी आनन्द मनाने से वंचित किये गये । यह परतन्त्रता कब तक चलेगी? प्रतिहारी ! १. प्रथम प्रकाशन में-कबका २. वहीं-इस अनन्तता निधि ३. वहीं-अनंग चन्द्रगुप्त : ६२९