पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६५८

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सुवासिनी-महापुरुष ! मैं नमस्कार करती हूँ। विष्णुगुम तुम्हारी बहन तुमसे आशीर्वाद की भिखारिन है" (चरण पकड़ती है) चाणक्य -सुखी रहो। [सजल नेत्र से सुवासिनी के सिर पर हाथ फेरते हुए प्रस्थान] दृश्या न्त र सप्तम दृश्य [कपिशा के राज-मन्दिर में कार्ने लिया और उसकी सखी] कार्नेलिया- बहुत दिन हुए देखा था-वही भारतवर्ष ! वही निर्मल ज्योति का देश-पवित्र भूमि, अब हत्या और लूट से बीभत्स बनायी जायगी। ग्रीक-सैनिक इस शस्यश्यामला पृथ्वी को रक्तरंजित बनावेंगे ! पिता अपने साम्राज्य से सन्तुष्ट नहीं, आशा उन्हें दौड़ावेगी। पिशाची की छलना में पड़कर लाखों प्राणियों का नाश होगा। और, सुना है यह युद्ध होगा उस चन्द्रगुप्त से ! सखी -सम्राट् तो आज स्कन्धावार में जानेवाले हैं। [राक्षस का प्रवेश राक्षस-आयुष्मती ! मैं आ गया। कार्नेलिया-नमस्कार ! तुम्हारे देश में तो सुना है कि ब्राह्मण जाति बड़ी तपस्वी और त्यागी है ! राक्षस-हाँ कल्याणी, वह मेरे पूर्वजों का गौरव है, किन्तु हमलोग तो बौद्ध हैं ! कार्नेलिया-और तुम उसके ध्वंसावशेष हो । मेरे यहाँ ऐसे ही लोगों को देशद्रोही कहते है । तुम्हारे यहां इसे क्या कहते हैं ? राक्षस-राजकुमारी ! मैं कृतघ्न नही, मेरे देश में कृतज्ञता पुरुषत्व का चिन्ह है । जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह होता है; उसका कल्याण- कार्नेलिया-कृतज्ञता पाश है, मनुष्य की दुर्बलताओं के फन्दे उसे और भी ढ़ करते हैं परन्तु-जिस देश ने तुम्हारा पालन पोगण करके पूर्व उपकारों का बोझ तुम्हारे ऊपर अला है, उसे विस्मृत करके क्या तुम कृतघ्न नही हो रहे हो ? सुकरात का तर्क तुमने पढ़ा है। राक्षस-तर्क और राजनीति मे भेद है, मैं प्रतिशोध चाहता हूँ। राजकुमारी कणिक ने कहा- कार्नेलिया-कि सर्वनाश कर दो। यदि ऐसा है, तो मैं तुम्हारी राजनीति नहीं पढ़ना चाहती। ६३८ : प्रसाद वाङ्मय