पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६६०

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कार्नेलिया-वही तो कर रही हूँ। आप ही तो कभी पढ़ने के लिए कहते हैं, कभी छोड़ने के लिए। सिल्यूकस-तब ठीक है, मैं ही भूल रहा हूँ। (बोनों का प्रस्थान) दृश्या न्त र [पथ में अष्टम दृश्य चन्द्रगुप्त और सैनिक] चन्द्रगुप्त-पंचनद का नायक कहाँ है ? एक सैनिक-वह आ रहे हैं, देव ! नायक-(प्रवेश करके) जय हो देव ! चन्द्रगुप्त-सिंहरण कहाँ है ? (नायक विनम्र होकर पत्र देता है, पत्र पढ़कर उसे फाड़ते हुए) हूँ ! सिंहरण इस प्रतीक्षा मे है कि कोई बलाधिकृत आ जाय तो अपना अधिकार सौंप दें ! नायक ! तुम खड्ग पकड़ सकते हो और उसे हाथ में लिये सत्य से विचलित तो नहीं हो सकते ? बोलो, चन्द्रगुप्त के नाम से प्राण दे सकते हो ! मैने प्राण देनेवाले वीरों को देखा है। चन्द्रगुप्त युद्ध करना जानता है और विश्वास रलो, उसके नाम का जयघोष विजयलक्ष्मी का मंगल-गान है ! आज से में ही बलाधिकृत हूँ, मै आज सम्राट नहीं, संनिक हूँ ! चिन्ता क्या? सिंहरण और गुरुदेव न साथ दें-क्या डर ! सैनिको ! सुन लो, आज से मैं केवल सेनापति हूँ और कुछ नहीं ! जाओ यह लो मुद्रा और सिंहरण को छुट्टी दो ! कह देना कि तुम दूर खड़े होकर देख लो सिंहरण ! चन्द्रगुप्त कायर नहीं है-जाओ, जाओ (नायक जाने लगता है) ठहरो-आंभीक की क्या लीला है ? नायक-आंभीक ने यवनों से कहा कि ग्रीक-सेना मेरे राज्य आ सकती है, परन्तु युद्ध के लिए सैनिक न दूंगा, क्योंकि मै उन पर स्वयं विश्वास नहीं करता। चन्द्रगुप्त - और वह कर ही क्या मकता था ! कायर ! अच्छा जाओ, देखो- वितस्ता के उस पार हमलोगों को शीघ्र पहुंचना चाहिये । तुम सैन्य लेकर मुझसे वहीं मिलो (नायक का प्रस्थान) एक सैनिक-मुझे क्या आज्ञा है, मगध जाना होगा ? चन्द्रगुप्त-आर्य शकटार को पत्र देना और सब समाचार सुना देना मैंने लिख तो दिया है, परन्तु तुम भी उनसे इतना कह देना कि इस समय मुझे सैनिक, शस्त्र तथा अन्न चाहिये। देश में डौंड़ी फेर दें कि आर्यावर्त में शस्त्र ग्रहण करने में जो समर्थ हैं-सैनिक हैं और जितनी सम्पति है---युद्ध-विभाग की है-जाओ ! (सनिक का प्रस्थान) ! ६४०: प्रसाद वाङ्मय