पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६६४

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[सुवासिनी गाती है] सखे ! वह प्रेममयी रजनी। आंखों में स्वप्न बनी सखे ! वह प्रेममयी रजनी। कोमल दुमदल निष्कम्प रहे, ठिठका-सा माधव सुमनों में गूंथ रहा, तारों की किरन-कनी। सखे ! वह प्रेममयी रजनी। नयनों में मदिर विलास लिये, आलोक खिला। हंसती-सी सुरभि सुधार रही, अलकों की मृदुल अनी। सखे ! वह प्रेममयी रजनी। मधु-मन्दिर-सा यह विश्व बना, मीठी झनकार उठी! केवल तुमको थी देख रही- स्मृतियों की भीड़ घनी। सखे ! वह प्रेममयी रजनी। [मन्द होते प्रकाश में क्षीण संगीत/अन्धकार में दृश्यान्तर] उज्ज्वल दशम दृश्य गया ? [युद्ध-क्षेत्र के समीप चाणक्य और सिंहरण] चाणक्य-तो आरंभ सिहरण-हाँ आर्य | प्रचण्ड विक्रम से सम्राट ने आक्रमण किया है। यवन- सेना पर उठी है। आज के युद्ध मे प्राणो को नुन्छ गिनकर वे भीम-पराक्रम का परिचय दे रहे हैं। गुरुदेव । यदि कोई दुर्घटना हुई तो! आज्ञा दीजिये, अब मै अपने को नहीं रोक सकता। तक्षशिला और मालवो की चुनी हुई सेना प्रस्तुत है, किस समय काम आवेगी? चाणक्य-जव चन्द्रगुप्त की नासीर सेना का बल क्षीण होने लगे और सिन्धु के इस पार की यवनों की समस्त सेना युद्ध में सम्मिलित हो जाय, उसी समय बांभीक आक्रमण करें। और तुम-चन्द्रगुप्त का स्थान ग्रहण करो। दुर्ग की सेना सेतु की रक्षा करेगी, साथ ही चन्द्रगुप्त को सिन्धु के उस पार जाना होगा-यवन-स्कंधावार पर आक्रमण करने, समझे? [सिंहरण का प्रस्थान | चर का प्रवेश] चर-क्या आज्ञा है? ६४: प्रसाद वाङ्मय