पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६६९

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कार्नेलिया -आप चिन्तित क्यों हैं ? सिल्यूकस'चन्द्रगुप्त को दण्ड कैसे दूं? इसी की चिन्ता है। कार्नेलिया-क्यों पिताजी, चन्द्रगुप्त ने क्या अपराध किया है ? सिल्यूकस-हैं ! अभी बताना होगा कालिया ! भयानक युद्ध होना, इसमें चाहे दोनों का सर्वनाश हो जाय ! कार्नेलिया-युद्ध तो हो चुका ! अब क्या मेरी प्रार्थना आप सुनेंगे पिताजी। विश्राम लीजिये ! चन्द्रगुप्त का तो कोई अपराध नहीं, भमा कीजिये पिताजी । (घुटने टेकती है)। सिल्यूकस-(बनावटी क्रोध से) देखता हूँ कि पिता को पराजित करनेवाले पर तुम्हारी असीम अनुकंपा है। कार्नेलिया-(रोती हुई) मैं स्वयं पराजित हूं। मैंने अपराध किया है पिताजी ! चलिये; इस भारत की सीमा से दूर चले चलिये, नहीं तो पागल हो जाऊंगी। सिल्यूकस-(उसे गले लगाकर) तब मैं जान गया कार्नी-सुखी हो बेटी ! जुझ नारत की सीमा से दूर न जाना होगा-तू भारत की साम्राज्ञी होगी। कार्नेलिया-पिताजी ! [सलज्ज कार्नेलिया का सिल्यूकस के साथ प्रस्थान] दृश्या न्त र तेरहवां दृश्य [बांडचायन का तपोवन | ध्यानस्थ चाणक्य | भयभीत भाव से राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश] राक्षस-चारों ओर आर्य-सेना ! कहीं से निकलने का उपाय नहीं। क्या किया जाय सुवासिनी? सुवासिनी-यह तपोवन है-यहीं हमलोग छिप रहेंगे। राक्षस-में देशद्रोही-ब्राह्मणद्रोही-बौद्ध ! हृदय कोष रहा है-स्या होगा ? सुवासिनी-आर्यों के तपोवन-इन राग-द्वेषों से परे है। राक्षस-तो चलो वहीं (सामने देखकर)-सुवासिनी ! वह देखो वह कौन ? सुवासिनी-(देखकर) आर्य चाणक्य ! राक्षस-आर्य-साम्राज्य का महामन्त्री ! इस तपोवन में ? सुवासिनी-पही तो ब्राह्मण की महत्ता है राक्षस ! यों तो मूखों की निवृत्ति