पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६७०

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भी प्रवृत्तिमूलक होती है। देखो, यह सूर्य- श्मियो का-सा रस-ग्रहण कितना निष्काम, कितना निवृत्तिपूर्ण है ! राक्षस-सचमुच मेरा भ्रम या सुवासिनी। मेरी इच्छा होती है कि चल कर इस महात्मा के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लूं और क्षमा भी मांग लूं ! सुवासिनी-बड़ी अन्छी बात सोची तुमने---देखो ! (दोनों आड़ में छिप जाते हैं) चाणक्य-(आँख खोलता हुआ) कितना गौरवमय आज का अरुणोदय है। भगवान् सविता, तुम्हारा आलोक जगत का मंगल करे। मैं आज जैसे निष्काम हो रहा हूँ। विदित होता है कि आजतक जो कुछ किया, वह सब भ्रम था, मुख्य वस्तु आज सामने आयी। आज मुझे अपने अन्तनिहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य-सागर निस्तरंग और ज्ञानज्योति निर्मल है। तो क्या मेरा कर्म- कुलालचक्र अपना निर्मित भाण्ड उतारकर धर चुका ? ठीक तो, प्रभात पवन के साथ सबकी सुख-कामना शान्ति का आलिंगन कर रही है। देव ! आज मैं धन्य हूँ ! [दूसरी ओर एक झाड़ी में मौर्य] मौर्य -ढोंग है। रक्त और प्रतिशोध, क्रूरता और मृत्यु का वेल देखते ही जीवन बीता, अब क्या मैं इस सरल पय पर चल सकूँगा? यह ब्राह्मण आँखें मूंदने-खोलने का अभिनय भले ही करे, पर मै ! असम्भव है, अरे जैसे मेरा रक्त खोलने लगा ! हृदय में भयानक चेतना, अवज्ञा का एक अट्टहास, प्रतिहिंसा जैसे नाचने लगी! यह एक साधारण मनुष्य, दुर्बल कंकाल, विश्व के समूचे शस्त्रबल को तिरस्कृत किये बैठा है ! रख दूं गले पर खड़ग, फिर देखू तो-यह प्राणो की भिक्षा मांगता है या नही ! सम्राट् चन्द्रगुप्त के पिता की अवज्ञा ! नहीं-नही ब्रह्महत्या होगी-मेरा प्रतिशोध और चन्द्रगुप्त का निष्कंटक राज्य ! [छुरी निकालकर चाणक्य को मारना चाहता है | सुवासिनी दौड़कर उसका हाथ पकड़ लेती है | दूसरी ओर से अलका, सिंहरण और अपनी माता के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश] चन्द्रगुप्त-(आश्चर्य और क्रोध से)-यह क्या पिताजी ! सुवासिनी ! बोलो, बात क्या है ? सुवासिनो--मैंने देखा कि सेनापति, आर्य चाणक्य को मारना ही चाहते हैं, इसलिए मैंने इन्हें रोका ! चन्द्रगुप्त-गुरुदेव, प्रणाम ! चन्द्रगुप्त क्षमा का भिखारी नहीं, न्याय करना चाहता है। बतलायें, पूरा विवरण सुनना चाहता हूँ और पिताजी, आप शस्त्र रख दीजिये--सिंहरण ! (सिंहरण आगे बढ़कर शस्त्र लेता है) ६५० : प्रसाद वाङ्मय