पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६७१

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चाणक्य -(हंसकर) सम्राट् ! न्याय करना तो राजा का कर्तव्य है, परन्तु यहां पिता और गुरु का सम्बन्ध है, कर सकोगे ? चन्द्रगुप्त--पिताजी ! मौर्य-हाँ चन्द्रगुप्त, मैं इस उद्धत ब्राह्मण की--सबकी अवज्ञा करनेवाले इस महत्वाकांक्षी का वध करना चाहता था--कर न सका-इसका दु.ख है। इस कुचक्रपूर्ण रहस्य का अन्त न कर सका। चन्द्रगुप्त-पिताजी, राज-व्यवस्था आप जानते होगे--वध के लिए प्राण दण्ड होता है और आपने गुरुदेव का- इस आर्य-साम्राज्य के निर्माणकर्ता ब्राह्मण का वध करने के प्रयास मे कितना गुरुतर अपराध किया है ! चाणक्य--किन्तु सम्राट् वह वध हुआ नही, ब्राह्मण जीवित है । अब यह उसकी इच्छा पर है कि वह व्यवहार के लिए न्यायाधिकरण से प्रार्थना करे या नही। मौर्य-पत्नी-आर्य चाणक्य ! चाणक्य-ठहरो ! (चन्द्रगुप्त से) प्रसन्न हूँ वत्स ! यह मेरे अभिनय का दण्ड था। मैंने आज तक जो किया, वह नहीं करना चाहिए था, उसी का महाशक्ति केन्द्र ने प्रायश्चित कराना चाहा। मै विश्वस्त हूँ कि तुम अपना कर्तव्य कर लोगे। राजा न्याय कर सकता है परन्तु ब्राह्मण क्षमा कर सकता है ! राक्षस-(प्रवेश करके)-आर्य चाणक्य ! आप महान् हैं, मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ ! न्यायाधिकरण से, अपने अपराध--विद्रोह का दण्ड पाकर सुखी रह सकूँगा। सम्राट् आपकी जय हो ! चाणक्य-सम्राट्, मुझे आज का अधिकार मिलेगा ? चन्द्रगुप्त -आज वही होगा--गुरुदेव की जो आज्ञा होगी। चाणक्य-मेरा किसी से द्वेष नही केवल राक्षस के सम्बन्ध मे अपने पर सन्देह कर सकता था, आज उसका भी अन्त हो गया । सम्राट्-सिल्यूकस अब आते ही होंगे--उसके पहले ही हमे अब अपना समस्त विवाद मिटा लेना चाहिये। चन्द्रगुप्त-जैसी आज्ञा। चाणक्य-आर्य शकटार के भावी जमाता, अमात्य राक्षस के लिए मैं अपना मन्त्रि-पद छोड़ता हूँ। राक्षस ! सुवासिनी को सुखी रखना। [सुवासिनी और राक्षस चाणक्य को प्रणाम करते हैं] मौर्य और मेरा दण्ड ? आर्य चाणक्य, मैं क्षमा ग्रहण न करूं तब आत्महत्या करूंगा! चाणक्य--मौर्य ! तुम्हारा पुत्र आज आर्यावर्त का सम्राट् है-अब और कौन-सा सुख तुम देखना चाहते हो? काषाय ग्रहण कर लो, इसमें अपने अभिमान को मारने का तुम्हें अवसर मिलेगा। वत्स चन्द्रगुप्त ! शस्त्र दो अमात्य राक्षस को? . चन्द्रगुप्त : ६५१