पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६७९

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[अरुणाचल-आश्रम का एक सघंन कुंज | श्रीफल, वट, आम, कदंब और मौलसिरी के बड़े-बड़े वृक्षों की झुरमुट में प्रभात को धूप घुसने की चेष्टा कर रही है | उधर समीर के झोंके, पत्तियों और डालों को हिला- हिलाकर, जैसे किरणों के निविरोध प्रवेश में बाधा डाल रहे हैं । वसंत के फूलों की भीनी-भीनी सुगंध, उस हरी-भरी छाया में कलोल कर रही है । वृक्षों के अंतराल के गुंजारपूर्ण नभखंड की नीलिमा में जैसे पक्षियों का कलरव साकार दिखाई देता है ! मौलसिरी के नीचे वेदी पर वनलता बैठी हुई, अपनी साड़ी के अंचल की बेल देख रही है | आश्रम में ही कहीं होते हुए संगीत को कभी सुन लेती है, कभी अनसुनी कर जाती है] [नेपथ्य में गान खोल तू अब भी आँखें खोल ! जीवन-उवधि हिलोरें लेता उठती लहरें लोल ! छबि की किरनों से खिल जा तू, अमृत-सड़ी सुख से मिल जा तू । इस अनंत स्वर से मिल जा तू वाणी में मधु घोल । जिससे जाना जाता सब यह, उसे जानने का प्रयत्न ! अह । को मत रह जकड़ा, बंधन खोल। खोल तू अब भी आँखें खोल । [संगीत बंद होने पर कोकिल बोलने लगती है | वनलता अंचल छोड़कर खड़ी हो जाती है | उसकी तीखी आँखें जैसे कोकिल को खोजने लगती हैं | उसे न देखकर हताश-सी वनलता अपने-ही-आप कहने लगती है] कितनी टीस है, कितनी कसक है, कितनी प्यास है, निरंतर पंचम की पुकार ! कोकिल । तेरा गला जल उठता होगा। विश्व-भर से निचोड़कर यदि डाल सकती तेरे सूखे गले में एक चूंट। (कुछ सोचती है) किंतु इस संगीत का क्या अर्थ है बंधनों को खोल देना, एक विशृंगनता फैलाना, परंतु मेरे हृदय की पुकार क्या कह रही है। आकर्षण किसी को बाहुपाश में जकड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है । इस संचित स्नेह से यदि किसी रूखे मन को निकना कर सकती ? (रसाल को आते भूल अरे अपने एक चूंट : ६५९