पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६८०

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? हुए देखकर) मेरी विश्व-यात्रा के संगी, मेरे स्वामी ! तुम काल्पनिक विचारों के आनंद मे अपनी सच्ची संगिनी को भूल"""(रसाल चुपचाप वनलता की आँखें बंद कर लेता है, वह फिर कहने लगती है) कौन है ? नीला, शीला, प्रेमलता ! बोलती भी नही; अच्छा, मैं भी खूब छकाऊंगी, तुम लोग बड़े दुलार पर चढ़ गयी हो न ! रसाल - (निश्वास लेकर हाथ हटाते हुए) इन लोगो के अतिरिक्त और कोई दूसरा तो हो ही नही सकता। इतने नाम लिये कितु""किंतु एक मेरा ही स्मरण न आया। क्यो वनलता वनलता-(सिर पर साड़ी खींचती हुई) आप थे ? मै नही जान"" रसाल -(बात काटते हुए) जानोगी कैसे लता ! मैं भी जानने की, स्मरण होने की वस्तु होऊँ तब न ! अछा तो है तुम्हारी विस्मृति भी मेरे लिए स्मरण करने की वस्तु होगी। (निश्वास लेकर) अच्छा, चलती हो आज मेरा व्याख्यान सुनने के लिए? वनलता -(आश्चर्य से) व्याख्यान | तुम कब से देने लगे? तुम तो कवि हो कवि, भला तुम व्यास्यान देना क्या जानो, और वह विषय कौन-सा होगा जिस पर तुम व्याख्यान दोगे ? घडी-दो-घडी बोन सकोगे | छोटी-छोटी कल्पनाओ के उपासक ! सुकुमार मुक्ति के सचालक | तुम भला क्या व्याख्यान दोगे? रसाल-तो मेरे इस भावी अपराध को तुम क्षमा न करोगी। आनंदजी के स्वागत मे मुझे कुछ बोलने के लिए आश्रमवालो ने तग कर दिया है। क्या करूं , वनलता । का स्वागत वनलता-(मौलसिरी की एक डाल पकड़कर झुकाती हुई) आनदजी अब होगा | क्हते क्या हो ! उन्हे आये तो कई दिन हो गये । रसाल -- (सिर पकड़कर) ओह ! मैं भूल गया था, स्वागत नही उनके परिचय-स्वरूप कुछ बोलना पडेगा । वनलता -हाँ परिचय ! अच्छा मुझे तो बसाइये यह आनदजी कौन है, क्यो आये है और कब | नही-नही; कहाँ रहते है ? रसाल मनुष्य है, उनका कुछ निज का सदेश है, उसी का प्रचार करते हैं। कोई निश्चित निवास नही। (जैसे कुछ स्मरण करता हुआ) तुम भी चलो न ! संगीत भी होगा। आनंदजी अरुणाचल पहाडी की तलहटी मे घूमने गये हैं। यदि नदी की ओर भी चले गये हो तो कुछ विलंब लगेगा नही तो अब आते ही होगे। तो मैं चलता हूँ। [रसाल जाने लगता है | वनलता चुप रहती है | फिर रसाल के कुछ दूर जाने पर उसे बुलाती है] ६६० प्रसाद वाङ्मय