पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६८४

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मुंकुल-(बात काटते हुए) ठहरिये तो, क्या फिर 'दु.ख' नाम की वस्तु कोई हुई नही? आनन्द-होगी कही । हम लोग उसे खोज निकालने का प्रयत्न क्यो करे ? अपने काल्पनिक अभाव, शोक, ग्लानि और दुःख के काजल आँखों के आंसू में घोल कर सृष्टि के सुन्दर कपोलों को क्यों कलुषित करे ? मै उन दार्शनिकों से मतभेद रखता हूँ जो यह कहते आये हैं कि संसार दुखमय है और दु.ख के नाश का उपाय सोचना ही पुरुषार्थ है। [वनलता चुपचाप तीब्र दृष्टि से दोनों को देखती हुई अपने बाल संवारने लगती है और प्रेमलता आनन्द को देखती हुई अपने-आप सोचने लगती है] प्रमलता-(स्वगत) अहः । क्तिना सुन्दर जीवन हो, यदि मनुष्य को इस बात का विश्वास हो जाय कि मानव-जीवन की मूल सत्ता मे आनन्द है । आनंद । आह ! इनकी बातों में कितनी प्रफुल्लता है। हृदय को जैसे अपनी भूली हुई गति स्मरण हो रही है । (वह प्रसन्न नेत्रों से आनन्द को देखती हुई कह उठती है) , और । आनद आनन्द -और दुख की उपासना करते हुए एक-दूमरे के दु ख से दुखी होकर परंपरागत महानुभूति -नही-नही, यह शब्द उपयुक्त नही, हां-सहरोदन करना मूर्खता है। प्रसन्नता की हत्या का रक्त पानी बन जाता है। पतला, शीतल ! ऐसी संवेदनाए संसार मे उपकार मे अधिक अपकार ही करती है । प्रेमलता-(स्वगत सोचने लगती है) सहानुभूति भी अपराध है ? अरे यह कितना निर्दय ! आनंद यह तुम क्या कह रहे हो? इस स्वच्छंद प्रेम से या तुमसे क्या आशा ! मुकुल-फिर संसार मे इतना हाहाकार आनन्द–उह, विश्व विकासपूर्ण है, है न ? तब विश्व की कामना का मूल रहस्य 'आनंद' ही है, अन्यथा वह 'विकास' न होकर दूसरा ही कुछ होता । मुकुल-और ससार मे जो एक-दूसरे को कष्ट पहुंचाते हैं, अगड़ते है ! आनन्द-दुख के उपासक उसकी प्रतिमा बनाकर पूजा करने के लिए द्वेष, कलह और उत्पीड़न आदि सामग्री जुटाते रहते है । तुम्हे हंसी के हल्के धक्के से उन्हे टाल देना चाहिए। मुकुल-महोदय, आपका यह हल्के जोगिया रग का कुरता जैसे आपके सुन्दर शरीर से अभिन्न होकर हम लोगो की आँखो मे भ्रम उत्पन्न कर देता है, वैसे ही आपको दुखि के झलमले अंचल मे सिसकते हुए संसार की पीड़ा का अनुभव स्पष्ट नहीं हो पाता। आपको क्या मालूम कि बुद्ध के घर की काली-कलूटी होड़ी भी कई ६६४: प्रसाद वाङ्मय