पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६८५

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1 दिन से उपवाम कर रही है । छुन्नू मूंगफलीवाले का एक रुपये की पूंजी का खोमची लड़कों ने उछल-कूदकर गिरा भी दिया और लूटकर खा भी गये, उसके घर पर सात दिन की उपवामी रुग्ण बालिका मुनक्के की आशा में पलक पसारे बैठी होगी या खाट पर पड़ी होगी। प्रेमलता-(आनन्द की ओर देखकर) क्यो ? आनन्द-ठीक वही बात ! यही तो होना चाहिए । स्वच्छंद प्रेम को जकड़कर बांध रखने का, प्रेम की परिधि संकुचित बनाने का यही फल है, यही परिणाम है । (मुस्कराने लगता है) मुकुल -तब क्या सामाजिकता का मूल उद्गम -वैवाहिक प्रथा तोड देनी चाहिए ? यह तो साफ-साफ दायित्व छोडकर उद्घांन जीवन बिताने की घोषणा होगी । परस्पर सुख-दुख मे गला बांधकर एक दूमरे पर विश्वास करते हुए, संतुष्ट दो प्राणियों की आशाजनक परिस्थिति क्या छोड देने की वस्तु है ? फिर... प्रेमलता-(स्वगत) यह कितनी निगशामयी शुन्य कल्पना है -(आनन्द को देखने लगती है)। आनन्द (हताश होने की मुद्रा बनाकर) ओट | मनुष्य कभी न समझेगा। अपने दुःखों से भयभीत कंगाल दूसरो के दु.ख में श्रद्धावान बन जाढा । मुकुल-मैने देखा है कि मनुष्य एक ओर तो दूसरे से ठगा जाता है फिर भी दूसरे से कुछ ठग लेने के लिए मावधान और कुशल बनने का अभिनय करता रहता है। प्रेमलता -ऐसा भी होता होगा ! आनन्द-यह मोह की भूख" वनलता-(पास आकर) और पट की ही भूख-पास तो मानव-लीवन में नही होती। हृदय को-(छाती पर हाथ रखकर) कभी इसको--भी टटोलकर देखा है ? इनकी भूख-प्यास का भी कभी अनुभव किया है ? (आनन्द कौतुक से वनलता की ओर देखने लगता है। आश्रम के मंत्री कुंज के साथ रसाल का प्रवेश)। आनंद-(मुस्कराकर) देवि, तुम्हारा तो विवाहित जीवन है न ! तब भी हृदय भूखा और प्यासा ! इसीसे मैं स्वच्छंद प्रेम का पक्षपाती हूँ। वनलता-वही तो मैं समझ नहीं पाती, प्रतिकूलताएँ" (कहते-कहते रसाल को देखकर रुक जाती है, फिर प्रेमलता को देखकर) प्रेमलता ! तुमने आज प्रश्न करके हम लोगों के अतिथि श्री आनंद जी को अधिक समय तक थका दिया एक चूंट : ६६५