पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६८६

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है। अच्छा होता कि कोई गान सुनाकर इन शुष्क तको से उत्पन्न हुई हम लोगों की ग्लानि को दूर करती। प्रेमलता-(सिर झुकाकर प्रसन्न होती हुई) अच्छा, सुनिए- [सब प्रसन्नता प्रकट करते.हुए एक-दूसरे को देखते हैं] प्रेमलता (गाती है)- जीवन-वन में उजियाली है। यह किरनों की कोमल धारा- बहती ले अनुराग तुम्हारा- फिर भी प्यासा हृदय हमारा- व्यथा घूमती मतवाली है। हरित दलों के अंतराल से- बचता-सा इस सघन जाल से- यह समीर किस कुसुम-बाल से- मांग रहा मधु की प्याली है। एक चूंट का प्यासा जीवन- निरख रहा सबको भर लोचन । कौन छिपाये है उसका घन- कहाँ सजल वह हरियाली है। [गान समाप्त होने पर एक प्रकार का सन्नाटा हो जाता है। संगीत की प्रतिध्वनि उस कुंज में अभी भी जैमे सब लोगों को मुग्ध किये है। वनलता सब लोगों से अलग कुंज से धीरे-धीरे कहती है] वनलता--कुछ देखा आपने । कुंज-क्या वनलता -हमारे आश्रम मे एक प्रेमलता ही तो कुमारी है। और यह आनदजी भी कुमार ही है। कुंज -तो इससे क्या ? वनलता-इससे | हां, यही तो देखना है कि क्या होता है ? होगा कुछ अवश्य ! देखू तो मस्तिष्क विजयी होता है कि हृदय ! आपको कुंज-(चितित भाव से) मुझे तो इसमे""जाने भी दो वह देखो रसालजी कुछ कहना चाहते हैं क्या ? मैं चल। [दोनों आनंदजी के पास जाकर खड़े हो जाते हैं] कुंज मंत्री-महोदय ! मेरे मित्र श्री रसालजी आपके परिचय स्वरूप एक भाषण देना चाहते हैं। यदि आपकी आशा हो तो आपके व्याख्यान के पहले ही- ? ६६६: प्रसाद वाङ्मय