पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६८७

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आनंद ·-(जैसे घबराकर) क्षमा कीजिए मैं तो व्याख्यान देना नहीं चाहता; परन्तु श्री रसालजी की रसीली वाणी अवश्य सुनूंगा। आप लोगों ने तो मेरा वक्तव्य सुन ही लिया । मैं वक्ता नही हूँ। जैसे सब लोग बातचीत करते हैं, कहते हैं, सुनते हैं, ठीक उसी तरह मैंने भी आप लोगों से वाग्विलास किया है। (रसाल को देखकर सविनय) हाँ, तो श्रीमान् रसाल जी ! प्रेमलता-किंतु बैठने का प्रबंध तो कर लिया जाय ! वनलता-आनंदजो इस वेदी पर बैठ जाय और हम लोग इन वृक्षों की ठंडी छाया में बड़ी प्रसन्नता से यह गोष्ठी कर लेगे। आनंद-हा-हाँ, ठीक तो है । [सब लोग बैठ जाते हैं और वनलता एक वृक्ष से टिक कर खड़ी हो जाती है। रसाल आनंद के पास खड़ा होकर, व्याख्यान देने की चेष्टा करता है । सब मुस्कराते हैं | फिर वह सम्हल कर कहने लगता है] रसाल-व्यक्ति का परिचय तो उसकी वाणी, उसके व्यवहार से वस्तुतः स्वयं हो जाता है; किंतु यह प्रथा-सी चल पड़ी है कि.... वनलता-(सस्मित, बीच में ही बात काटकर) कि जो उस व्यक्ति के संबंध में भी कुछ नही जानते, उन्ही के सिर पर परिचय देने का भार लाद दिया जाता है [सब लोग वनलता को असंतुष्ट होकर देखने लगते हैं और वह अपनी स्वाभाविक हंसी से सबका उत्तर देती है और कहती है]- अस्तु, कविजी, आगे फिर"" (सब हंस पड़ते हैं।) रसाल-अच्छा, मैं भी श्री आनंद जी का परिचय न देकर आपके संदेश के संबंध में दो-एक बातें कहना चाहता हूँ, क्योंकि आपका संदेश हमारे आश्रम के लिए एक विशेष महत्त्व रखता है । आपका कहना है कि-(रुककर सोचने लगता है।) मुकुल-कहिए-कहिए ! रसाल-कि अरुणाचल-आश्रम इस देश की एक बड़ी सुंदर संस्था है, इसका उद्देश्य बड़ा ही स्फूर्तिदायक है। इसके आदर्श वाक्य, जिन्हें आप लोगों ने स्थान- स्थान पर लगा रक्षे हैं, बड़े ही उत्कृष्ट हैं; किंतु उन तीनों में एक और जोड़ देने से आनंद जी का संदेश पूर्ण हो जाता है- स्वास्थ्य, सरलता और सौंदर्य में प्रेम को भी मिला थेने से इन तीनों की प्राण-प्रतिष्ठा हो जायगी। इन विभूतियों का एकत्र होना-विश्व के लिए आनंद का उत्स खुल जाना है। एक बूंट : १६७