पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६९०

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? रसाल-(उसे रोककर) किंतु तुमने अपनी खोपड़ी पर यह क्या पहापन अंकित कर लिया है ? चंदुला-(सिर झुकाकर दिखाते हुए) महोदय ! प्रायः लोगों की खोपड़ी में ऐसा ही भद्दापन भरा रहता है। मैं. तो उसे निकाल बाहर करने का प्रयत्न कर रहा हूं। आपको इससे सहमत होना चाहिए। यदि इस समय आप लोगों की कोई सभा, गोष्ठी या ऐसी ही कोई समिति इत्यादि हो रही हो तो गिन लीजिए, मेरे पक्ष में बहुमत होगा। होगा न ? रसाल-किंतु यह अ-सुंदर है । चंदुला-किंतु मैं ऐसा करने के लिए बाध्य था। महोदय, और करता क्या? रसाल-क्या ? चंदुला-मैंने खिड़की से एक दिन झांककर देखा, एक गोरा-गोरा प्रभावशाली मुख, उमके साथ दो-तीन मनुष्य सीढी और बड़े-बड़े कागज लिये मेरे मकान पर चढ़ाई कर रहे हैं । मैंने चिल्लाकर कहा--है-ह-हे हैं, यह क्या ? रसाल-तब क्या हुआ चंदुला-उसने कहा, विज्ञापन चिपकेगा। मैंने बिगड़कर कहा-तुम उस पर लगा हुआ विज्ञापन स्वयं नही पढ रहे हो, तब तुम्हारा विज्ञापन दूसरा कौन पढेगा। वह मेरी दीवार पर लिखा हुआ विज्ञापन पढने लगा-'यहां विज्ञापन चिपकाना मना है।' में मुंह बिचकाकर उसकी मूर्खता पर हंसने लगा था कि उसने डॉटकर कहा-"तुम नीचे आओ।" रसाल-और तुम नीचे उतर आये, क्यो? चंदुला-उतरना ही पडा। मै चंदुला जो था। वह मेरा सिर सहला कर बोला-अरे तुम अपनी सब जगह बेकार रखते हो। इतनी बड़ी दीवार ! उस पर विज्ञापन लगाना मना है ! और इतना बढ़िया प्रमुख स्थान, जैसा किसी अच्छे पत्र में मिलना असंभव है। तुम्हारी खोपडी खाली ! आश्चर्य ! तुम अपनी मूर्खता से हानि उठा रहे हो। तुमको नहीं मालूम कि नंगी खोपड़ी पर प्रेत लोग चपत लगाते है। वनलता -तो उमने भी चपत लगाया होगा ? चंदुला - नहीं-नही, (मुंह बनाकर) वह बड़ा भलामानुष था। उसने कहा-- तुम लोग उपयोगिता का कुछ अर्थ नही जानते। मैं तुम्हें प्रतिदिन एक सोने का सिक्का दूंगा और तब मेरा विज्ञापन तुम्हारी चिकनी खोपड़ी पर खूब सजेगा। सोच लो। ६७० प्रसाद वाङ्मय