पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६९१

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रसाल-और तुम सोचने लगे? चंदुला-हां, किंतु मैंने सोचने का अवसर कहाँ पाया ? ऊपर से वह बोलीं। रसाल-ऊपर से कौन ? चंदुला-वही-वही, (दांत से जीभ दबाकर) जिनका नाम धर्मशास्त्र की बामा के अनुसार लिया ही नही जा सकता। रसाल-कोन, तुम्हारी स्त्री ? चंदुला-(हंसकर) जी-ई-ई, उन्होंने तीखे स्वर से कहा--'चुप क्यों हो, कह दो कि हाँ ! अरे पंद्रह दिनों मे एक बढ़िया हार ! बड़े मूर्ख हो तुम !' मैंने देखा कि वह विज्ञापनवाला हंस रहा है। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं मूर्ख तो नहीं-ही बनूंगा, और चाहे कुछ भी बन जाऊँ । तुरंत कह उठा-हाँ -ना नहीं निकला, क्योंकि जिसकी कृपा से खोपड़ी चंदुली गई थी उसी का डर गला दबाये था। रसाल-(निश्वास लेकर वनलता की ओर देखता हुआ) तब तुमने स्वीकार कर लिया? चंदुला-हाँ, और लोगों के आनंद के लिए । आनंद-(आश्चर्य से) आनंद के लिए ? चंदुला-जी, मुझे देखकर सब लोग प्रसन्न होते हैं। सब तो होते हैं, एक आप ही का मुंह बिचका हुआ देख रहा हूं। मुझे देखकर हँसिए तो! और यह भी कह देना चाहता हूँ कि उसी विज्ञापनदाता ने यह गुरु-भार अपने ऊपर लिया है-बीमा कर लिया है कि कोई मुझे चपत नही लगा सकेगा। आप लोग समझ गये ? यह मेरी कथा है। आनंद-किंतु आनंद के लिए तुमने यह सब किया ! कैसे आश्चर्य की बात है ? (वनलता को देखकर) यह सब स्वच्छंद प्रेम को सीमित करने का कुफल है, देखा न? चंदुला-आश्चर्य क्यों होता है महोदय ! मान लिया कि आपको मेरा विज्ञापन देखकर आनंद नहीं मिसा, न मिले; किंतु इन्ही पंद्रह दिनों में जब मेरी श्रीमती हार पहनकर अपने मोटे-मोटे अंधेरों की पगडंडी पर हंसी को धीरे-धीरे दौड़ावेंगी और मेरी चंदुली खोपड़ी पर हल्की-सी चपत लगावेंगी तब क्या मैं आंख मूंदकर आनंद न लूंगा-आप ही कहिये ? आपने ब्याह किया है तो ! आनंद-(डाँटते हुए) मैंने ब्याह नहीं किया है। किंतु इतना मैं कह सकता हूँ कि आनंद को इन गड़बड़-झाला में घोटना ठीक नहीं। अंतरात्मा के उस प्रसन्न- गंभीर उल्लास को तरह कदर्षित करना अपराध है । चंदुला-कदापि नहीं, एक चूंट सुधारस पान करके देखिए तो, वही भीतर की एक बूंट : ६१ .