पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६९५

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सुंदर जीवन, विता देने के लोभ मे मैने झाड लगाना स्वीकार किया है। विद्यालय की परीक्षा और उपाधि को भुला दिया है तब तुम मेरी स्त्री होकर" झाड़वाले की स्त्री--बस-बम, मैं अब तुममे कुछ न कहंगी, मेरी भूल थी। अच्छा तो मैं जाती हूँ। झाडू वाला मै भी चलता है - (दोनों का प्रस्थान) वनलता-यही तो, इसे कहते है झगा, और यह क्तिना सुखद है, एक-दूसरे को समशकर जब समझौता करने के लिए, मनाने के लिए, उत्सुक होते है तब जैसे स्वर्ग हसने लगता है-हा, 'स भीषण ससार मे । मै पागा हैं। (सोचती हुई करुण मुख मुद्रा बनाती है, फिर धीरे-धीरे सिसकने लगती है) वेदना होती है । व्यथा क्सकती है । प्यार के लिये । प्यार करने के लिये नही, प्रेम पाने के लिये । विश्व की इस अमूत्य सपत्ति मे क्या मेरा अश नहीं । इन अमफलताओ के सकलन मे मन को बहलाने के लिए, जीवन-यात्रा में थके हृदय के सतोष के लिए कोई अवलम्ब नही । मैं प्यार करती हूँ और प्यार करती रहूं, विनु मुझे ? मानवता के नाते""इसे सहने के मिए मै वदापि प्रस्तुत नहीं । जाह ' क्तिना तिरस्कार है (वनलता सिर झुकाकर सिसकने लगती है|आनन्द का प्रवेश)। आनन्द - आप कुछ दुखी हो रही है क्यो? वनलता मान लीजिये कि हाँ मैं दुखी हूँ। आनन्द- और वह दु ख ऐसा है कि आप रो रही है । वनलता -(तीखेपन से) मुझे यह नही मालम कि क्तिना दुःख हो तब रोना चाहिए। आपने इसका श्रेणी-विभाग क्यिा होगा। मझे तो यही दिखलाई देता है कि सब दुखी है, सब विरल है, सबको एक--'एक घंट' की प्यास बनी है ! आनन्द-किंतु मै दु ख का अस्तित्व ही नहीं मानता। मेरे पास तो प्रेम रूपी अमूल्य चितामणि है। वनलता-और मै उसी के अभाव से दुखी हैं। आनन्द- आश्चर्य । आपको प्रेम नही मिला । कल्याणी । प्रेम तो.. वनलता-हा, आश्चर्य क्यो होता है आपको | ससार मे लेना तो सब चाहते है, कुछ देना ही तो कठिन काम है । गाली, देने की वस्तुओ मे सुलभ है, किंतु सब को बह भी देना नहीं आता। मै स्वीकार करती हूँ कि मुझे किसी ने अपना निश्छल प्रेम नही दिया, और बडे दुःख के साथ इसे न देने का, ससार का, उपकार मानती हूँ। (आँखों में जल भर लेती है, फिर जैसे अपने को सम्हालती हुई) क्षमा कीजिए, मेरी यह दुर्बलता थी। आनन्द-नही श्रीमती ! यही तो जीवन की परम आवश्यकता है। आह ! कितने दुख की बात है कि आपको एक चूंट : ६७५